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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/01/2010

लिपस्टिक लव-हिन्दी व्यंग्य (lipstic love-hindi vyangya)

एक तकनीकी शिक्षा महाविद्यालय में एक प्रतियोगिता हुई। हम इसलिये इसे मज़ेदार कह सकते हैं कि देश के हालात देखते हुए दर्दनाक या खतरनाक कहने का मन नहीं करता। जब किसी विषय पर रोते हुए आंसु सूख जायें तो क्या किया जाये? हंस लें! किश्तों में रोते रोते भी आंसु सूख जाते हैं तब जिंदगी नीरस हो जाती है और ऐसे हमारा प्रयास होता है कि हंसी ढूंढे। प्रतियोगिता यह थी कि छात्र अपने सामने छात्राओं को बिठाकर लिपस्टिक लगा रहे थे।
टीवी चैनलों पर यह बकायदा प्रसारित हुआ। इस पर चर्चायें हुईं। इंटरनेट पर भी बहुत कुछ लिखा गया अब हमारे समझ में नहीं आया कि लिखें कि नहीं! क्योंकि यह प्रतियोगिता एकदम बेतुकी लगी। जिस तरह टीवी चैनलों को विज्ञापन के बीच मेें समाचार तथा बहस सामग्री सजाने का अवसर मिला उससे यह प्रतियोगता और पात्र भी प्रायोजित लगे-अखबारी भाषा में कहें कि फिक्ंिसग लगी।
यह प्रतियोगता गलत या सही थी-इस पर निष्कर्ष प्रस्तुत करने का हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। यह सारा दृश्य यह कुछ ऐसा ही है जैसे कि पहले बंदर बंदरिया का नाच लगता था। तब भी कोई वन्य जीव सेवी उन पर अपनी आपत्ति नहीं उठाता था तब अब लगभग बंदर हो चुके इंसान की इस हरकत पर क्या कहा जाये? फिर अपना नज़रिया अब घटनाओं के अच्छे बुरे होने से अधिक उसके पीछे प्रायोजक पर जाता है। आधुनिक शिक्षा आदमी को बंदर बना रही है यह इसका प्रमाण है। लोग कह रहे हैं कि इंजीनियरिंग के छात्रों का दिमाग तेज होता है पर हम सवाल पूछते हैं कि क्या बंदर का दिमाग का क्या धीमा होता है? हमारा ही जवाब है कि कदापि नहीं।
बात गणित और साइंस की भी हो गयी है। सभी छात्र छात्रायें इंजीनियरिंग के हैं। दूसरा इसका पहलू यह भी है कि उस महाविद्यालय के सभी छात्र छात्रायें इसमें शामिल हों इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। इसका मतलब कुछ समझदारी भी रहे होंगे और आज के आधुनिक बंदर बंदरिया का लिपिस्टक कर्म देख रहे थे।
लेखाकर्म करने वाले लोग जब अपना काम करते हैं तब उनका दिमाग बहुत तेजी से भागता है। आंकड़ों का काम निरंतर करें तो ऐसा लगता है कि दिमाग का बहुत सा कचड़ा साफ हो गया है। इसका कारण यह है कि मनुष्य का मस्तिष्क और मन परिवर्तित राह पर चलकर प्रसन्न होते हैं-योग में इसलिये ध्यान को महत्व दिया जाता है। जब घर के हालातों का साहित्य दुःख दे रहा हो तब लेखाकर्म करने वालों को आंकड़े राहत दिलाते हैं। ऐसे ही एक लेखाकर्मी ने मज़ेदार बात कही थी कि ‘गणित से दिमाग तेज होता है, मगर सोचने की क्षमता कम होती है।’
हमने उससे पूछा कि-‘क्या इसका मतलब यह कि चिंत्तन क्षमता कम होती है।’
उसने कहा-‘हां, विज्ञान और गणित के लोगों की बुद्धि इतनी तीक्ष्ण होती है कि वह हर बात पर तथ्यपूर्ण ढंग से बात कर सकते हैं पर फिर भी अपनी तरफ से सोचने की क्षमता उनमें नहीं होती।’
उसकी बात सही लगी, मगर हर तथ्य ब्रह्म वाक्य नहीं हो सकता। अपवाद सभी जगह होते हैं। अनेक डाक्टर, इंजीनियर तथा लेखाकर्मी अच्छे लेखक भी होते हैं। अलबत्ता उनके विषयों का चयन इस बात को दर्शाता है कि कहीं न कहीं वह अपने शिक्षा से प्रभावित होते हैं। हमारे एक मित्र ने विज्ञान में शिक्षा पाई और लेखकर्म करने लगे पर मगर गज़ब के ग़जलकार हैं।
इंजीनियर के छात्र छात्रायें लिपिस्टक प्रतियोगिता में शामिल हो गये इस पर संस्कृति और संस्कार की बहस बेमानी है क्योंकि हम बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव ने हमारे देश का संास्कृतिक बंटवारा कर दिया है। मतलब हमें ऐसी घटनाओं की उपस्थिति स्वीकारनी होगी और रोकर नहीं हंसते हुए। हमारी आधुनिक शिक्षा के तीन विषय हैं-विज्ञान, वाणिज्य तथा कला।
कला के विषय वही लोग लेते हैं जिनको केवल समाज को दिखाने के लिये उपाधि प्राप्त करनी होती है और ऐसे उनकी संख्या कम ही होती हैं। एक समय था जब देश में वाणिज्य शिक्षा का जोर था क्योंकि उस समय बैंकों के राष्ट्रीयकरण नया होने से उसमें रोजगार के अवसर अधिक थे। फिर आया गणित और विज्ञान का ज़माना। चिकित्सा तथा यांत्रिकी के विषय इतने लोकप्रिय हैं कि हर तीसरे घर का बच्चा पी. एम. टी. तथा पी. ई. टी. की तैयारी करता मिलता था। समय बदला अब कंप्यूटर के लिये भी अनेक लोग प्रयास कर रहे हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में छात्र अधिक हैं। जैसा विषय हैं वह उनमें चिंत्तन कर आगे बढ़ने की बजाय तेजी के साथ आगे बढ़ते रहो जैसे सिद्धांत पर उनको चलना होता है। मतलब अपनी आंखें बाहर हमेशा खुली रखो अंदर की बंद रहें तो चलेगा। सोच से पैदल! खाने के लिये फास्ट फूड का प्रचलन बढ़ा है पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञों की इस चेतावनी के बावजूद कि वह खतरनाक हैं।
इस पर प्रचार पाने के लिये लालासित युवक युवतियों में को अच्छे बुरे की पहचान ही नहीं रही। अगर हम ऐसी घटनाओं पर आपत्ति करें तो अभिव्यक्ति की आज़ादी के के ठेकेदारों से आमना सामना हो जाता है। यह ठेकेदार बाज़ार और प्रचार माध्यमों के लिये काम करते हैं।
आखिर शैक्षणिक संस्थानों में ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल मूल स्त्रोत कभी नज़र नहीं आये पर हमें ऐसा लगता है कि तकनीकी शिक्षा एक सोची समझी योजना के तहत यहां दी जाती है। देश के इंजीनियर, चिकित्सक तथा कंप्यूटर विशेषज्ञ यहां से शिक्षा प्राप्त कर पश्चिमी तथा खाड़ी देशों में चले जाते हैं। देश इन पर लाखों रुपये लगाता है पर इससे यहां के लोगों को मिलता क्या है? सीधी बात कहें तो हमारे शैक्षणिक ढांचेे में ऐसे तत्व जुड़े हैं जो कहीं ने कहंी यहां पश्चिम के लिये गुलाम बनाने की दलाली करते हैं।
कुछ सवाल हैं जो दिलचस्प हैं!
1. हिन्दी में अंग्रेजी शब्द जोड़ने की वकालत क्यों की जाती है? इसलिये ही न कि यहां के लोग अंग्रेजी पूरी तरह से सीखकर अच्छी तरह बाहर जाकर गुलामी कर सकें। कहतें हैं कि अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता, मगर कहां? भारत में तो चल रहा है, इसका मतलब यह कि लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से यह बताया जाता है कि विदेश जाना है तो अंग्रेजी सीख लो। अनेक लोग सीख भी रहे हैं पर सभी विदेश नहीं जा पाते और जो रह गये उनके नाम बेरोजगारों की सूची में हैं।
2. आखिर इस तरह के घटिया नाटकों की जरूरत क्या है? तकनीकी छात्रों को इस तरह पाश्चात्य संस्कृति में दक्ष बनाया जाता है ताकि बाहर जाकर वहां अपने देश की कुसंस्कृति न फैलायें। आप सुनते ही होंगे कि अभी तक जो भारतीय बाहर गये हैं वह अपनी संस्कृति के साथ गये हैं। इतना ही नहीं कुछ तो वहां अध्यात्मिक रूप से अपनी ज़मीन से जुड़े हैं।
3. इससे छात्रों को लाभ क्या हैं? इससे शैक्षणिक क्षेत्रों में सक्रिय विदेशी भक्त तत्व यह संदेश विदेशों में भेजते हैं कि हम भी आपकी तरह हैं और गुलामों का अपने यहां आना जारी रखो। हम तुम्हारे मुताबिक यहां गुलाम बना रहे हैं।
4. छात्राओं को इससे क्या मिलेगा? यह एक खतरनाक सवाल है। हम यह दोहराते हैं कि हम इस घटना का विरोध नहीं कर रहे पर प्रति सवाल करते हैं कि क्या इससे लड़कियां अपने आपको सस्ता नहंी बना रही। सस्ता से मतलब रुपये में आंकलन करने से नहीं है। क्या छात्रायें यह सोच सकती हैं कि सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा के मामले में उन्होंने अपने को हल्का बना लिया है।
यहां युवक युवतियों के दैहिक प्रेम पर प्रश्न नहीं किया जा रहा है बल्कि उसके प्रदर्शन के औचित्य पर सवाल उठाया जा रहा है। पशु पक्षी तथा वन्य जीव सार्वजनिक रूप से प्रेमलीला करते हैं पर उनको सर्वशक्तिमान ने विवेक के साथ और बंद कमरों में रहने लायक नहीं बनाया है। हम यहां प्रगतिशीलों और जनवादियों की तरह हर काम में सरकारी दखल की मांग नहीं करेंगे पर एक सवाल उठायेंगे कि यह तकनीकी छात्र उस पश्चिम के लिये शैक्षणिक मध्यस्थों की मौजूदगी में पाश्तात्य संस्कृति के साथ संपन्न गुलाम के रूप में तैयार हो रहे हैं तब भी वह पूंजीवाद का विरोधी होते हुए भी अभिव्यक्ति आज़ादी के आड़ में उनका समर्थन क्यों करते हैं?
सवाल नारीवादियों से भी है कि क्या उनको लगता है कि नारी ऐसीे घटनाओ से प्रदर्शन योग्य वस्तु या उपभोग्या के रूप में प्रचारित न होकर अपने पैरों से खड़ी हो रही है।  उनको यह भी बता दें कि पश्चिम में अनब्याही माताओं की बढ़ती संख्या से वहां के सामाजिक विशेषज्ञ चिंतित हैं। दूसरा यह भी कि अभी इटली में सार्वजनिक रूप से बिकनी पहनने पर रोक लगाने का प्रस्ताव चल रहा है जो कि पश्चिम का ही मुल्क है। वहां माना जा रहा है कि नारी के प्रति अपराध बढ़ने का यह एक कारण है।
जवाब मिलना मुश्किल है। भारत में गुलामों की फौज बनी रहे इसके लिये अंग्रेज अपने चेले छोड़  गये है, अलग बात है कि कुछ लोग पश्चिम का विरोध का दिखावा करते हैं। प्रायोजित बुद्धिजीवी, शिक्षाविदों तथा लेखन कर्मियों का एक बहुत बड़ा समूह है जिसके पास धन, पद और बाहूबल की ऐसी शक्ति है जिसे वही आम लेखक और विचारक समझ सकते हैं जो स्वतंत्रता का मूल्यांकन अपने ढंग से करते हैं। लिपिस्टक प्रतियोगता और बीयर बारों में वैलंटाईन डे मनाने पर विरोध और समर्थन तो एक प्रायोजित युद्ध लगता है। मूल रूप से इसके परिणामों पर कोई सोचता हो ऐसा लगता है। यह लिपिस्टक लव है जो आज यहां शुरु हुआ है कल दूसरी जगह होगा। परिणाम तो उन लोगों को ही भोगना है जो इस तरह के नाटक करते हैं। अलबत्ता ऊंच नीच होने पर लड़कियों को अधिक परेशानी होती है जिसमें बदनामी का संकट सबसे अधिक है, यह चिंता का विषय सामाजिक विशेषज्ञों के लिये हो सकता है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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