उन वरिष्ठ ब्लोगर महोदय ने अपनी टिप्पणी में उस ब्लाग का लिंक रखकर अपने सतर्क निगाहों का परिचय देकर अच्छा किया पर यह लेखक उस पाठ को पहले ही पढ़ चुका था और फिर आगे दो बार यह देखने के लिये भी जाना ही था कि उस पर टिप्पणियां कैसी हैं? हां, यहां अंतर्जाल पर कई बार पाठों पर विद्वतापूर्ण टिप्पणियां भी पढ़ने को मिल जाती हैं जिनका आगे उस विषय पर मार्गदर्शन प्राप्त होता है। वैसे यह पाठ लेखक नहीं पढ़ता तो भी यह सब लिखने वाला था जो लिख रहा है। वह यह कि आधुनिक बाजार मनुष्य में असहजता का भाव पैदा अधिक से अधिक कमाना चाहता है और उसके लिये उसने बकायदा ऐसा प्रचारतंत्र बना रखा है जो चिल्ला चिल्लाकर उसे वस्तुऐं खरीदने के लिये प्रेरित करता है, फिल्म देखने के लिये घर से निकालता है और क्रिकेट मैच में अपने महानायको के प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिये दौड़ लगवाता है। इस बाजार का असली शत्रु है भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का वह ‘सहज योग’ का भाव-चारों वेदों के सारतत्व के साथ इसका श्रीमद्भागवत में बहुत सरलता से उल्लेख किया गया है-यह बात समझने की है और उसके लिये हर इंसान को अपने विवेक का उपयोग करना पड़ता है। केवल बुद्धि से काम नहंी चल पाता जो केवल शब्दों के अर्थ तक ही सीमित रहती है-उसका भाव समझने के लिये मनुष्य को अपने अंदर संकल्प और धैर्य धारण करना पड़ता है तभी उसके विवेक चक्षु खुलते हैं।
दरअसल भारतीय योग और अध्यात्म पर अनुकूल और प्रतिकूल लिखने वाले बहुत हैं पर उसे पढ़ता कौन कितना है यह समझ में नहीं आता। समर्थकों ने भी कुछ अच्छे विचार दिमाग में रख लिये हैं और वही उसे नारे बनाकर प्रस्तुत करते हैं। आलोचकों की स्थिति तो बदतर और दयनीय है जिनके पास पूरे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से दो तीन श्लोक या दोहे हैं-जिनको समाज अब स्वयं ही अप्रसांगिक मानता है-जिनको नारे की तरह रटकर सुनाते हैं। समर्थक तो फिर भी प्रशंसा के पात्र हैं कि वह पढ़ते तो रहते हैं पर आलोचक पढ़ी पढ़ाई बातों की विवेचनाओं को ही अपना आधार बनाकर चलते हैं। जिन किताबों की चर्चा करते हैं उनको पढ़ना तो दूर वह देखना तक पसंद नहीं करते, पर विचार व्यक्त करने में नहीं चूकते।
उन वरिष्ठ ब्लोगर महोदय द्वारा सुझाये गये ब्लाग का पाठ यकीनन एक विद्वान द्वारा ही लिखा गया था। उनका अपना दृष्टिकोण हो सकता है मगर उसमें असहमति की भारी गुंजायश छोड़ी गयी। योग को रोग बताते हुए लिखे गये उस पाठ में महर्षि विवेकानंद पर भी प्रतिकूल लिखा गया। उस पाठ में योग के बारे में लिखी गयी बातों ने इस बात के लिये बाध्य किया कि पतंजलि येाग दर्शन की किताबों को पलट कर देखा जाये। कहीं भी रसायनों के मिश्रण से औषधि बनाने की बात सामने नहीं आयी। कैवल्यपाद-4 में एक श्लोक मिला
जन्मोषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः।।9।।
इसका हिन्दी में भावार्थ है कि ‘जन्म, ओषधि मंत्र, तप, और समाधि, इस तरह पांच तरह की सिद्धियां होती हैं।
जब पतंजलि साहित्य खोलें तो कुछ न कुछ ऐसा मिल ही जाता है जो दिलचस्प होता ही है। दरअसल हमने आज एक पाठ अन्य भी पढ़ा था जिसमें कथित वैलंटाईन ऋषि और हमारे महर्षि मनु के बीच तुलनात्मक अध्ययन भारतीय जाति व्यवस्था पर आक्षेप किये गये। तय बात है कि मनु को जन्म पर आधारित व्यवस्था का निर्माता माना जाता है पर पतंजलि योग दर्शन में यह दिलचस्प श्लोक मिला जो कि इस बात का प्रमाण है कि हमारी जाति व्यवस्था का आधार कर्म और व्यवहार रहा है।
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्।
इसका हिन्दी भावार्थ यह है कि ‘एक जाति से दूसरी जाति में जाने का रूप प्रकृति पूर्ण होने से होता है। महर्षि विश्वामित्र ने तप से ही ब्रह्म्णत्व प्राप्त किया था। दरअसल ब्राह्म्णत्व का अर्थ है समाज का आपने ज्ञान से श्रेष्ठता प्रमाणित कर समाज मार्ग दर्शन करना और यह कार्य तो कोई भी कर सकता है।
इसका आशय यह है कि अगर कोई मनुष्य योग साधना, मंत्र और तप से चाहे तो अपनी प्रकृतियां पूर्ण कर उच्च और प्रतिष्ठित पद पर स्थापित हो सकता है और जन्म के आधार पर ही सभी कुछ होना जरूरी नहीं है। यह अलग बात है कि लोग जन्म और ओषधियों के सहारे भी श्रेष्ठता हासिल कुछ लोग प्राप्त कर लेते हैं। जन्म का सभी जानते है पर ओषधियों की बात आयी तो आपने देखा होगा कि अनेक खेल प्रतियोगिताओं में उनके सेवन से अनेक लोग स्वर्ण पदक प्राप्त करते हैं-यह अलग बात है कि इनमें कुछ प्रतिबंधित होती हैं कुछ नहीं।
याद रखिये हमारे देश में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनका जन्म कथित उच्च जातियों में नहंी हुआ पर अपने कर्म के आधार पर उन्होंने ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त की पूरा समाज आज उनको याद करता है। असली बात यह है कि योग साधना एक प्राकृतिक क्रिया है। योगासनों की तुलना सुबह सैर करने या जिम जाने से करना अपने अज्ञान का प्रमाण है। जहां तक लाभ होने वाली बात है तो इस लेखक के इस पाठ का हर शब्द उसी योगसाधना के शिखर से प्रवाहित है। अगर इनका प्रभाव कम है तो उसके पीछे इस लेखक के संकल्प की कमी हो सकती है पर अगर वह अधिक प्रभावी है तो उसका पूरा श्रेय योगसाधना को जाना चाहिये। यह अलग बात है कि अगर आर्थिक रूप से ही लाभ को तोला जाना है तो यकीनन उसके लिये इस लेखक का अकुशल प्रबंधन जिम्मेदार है जो ब्लाग लिखने से एक पैसा नहीं मिलता पर जिस तरह भारतीय अध्यात्म का संदेश फैल रहा है वह योग साधना का ही परिणाम है। यह पाठ आत्म प्रचार के लिये नहीं लिखा बल्कि यह बताने के लिये लिखा है कि जब सात वर्ष पूर्व इस लेखक ने योग साधना प्रारंभ की थी तब उसके जीवन का यह दूसरा दौर था यानि कम से इस लेखक को तो योग साधना का लाभ मिला है-किसी को नहीं मिला इस बात का तो खंडन हो ही गया।
अब करें बाजार और उसके प्रचारतंत्र की बात! यह वही बात है कि अगर वरिष्ठ ब्लोगर महोदय ने वह लिंक नहीं देते तो भी यह लिखा ही जाना था। विदेशियों को क्या देश के ही बड़े बड़े धनाढ्यों को यह नहीं सुहाता।
पहले यह लेखक भी संगठित प्रचार माध्यमों और अंतर्जाल लेखकों के प्रभाव में आकर बाबाओं की अर्जित संपत्तियों पर अपनी नाखुशी लिखता था पर अब जैसे जैसे नवधनाढ्य लोगों की पोल सामने आ रही है-इसका श्रेय भी आधुनिक प्रचारतंत्र को ही है जो बाजार का रक्षक है पर समय पास करने के लिये उसे ऐसी पोल लानी पड़ती है-वैसे लगता है कि बाबा भला क्या बुरा कर रहे हैं? उनका कमाया पैसा रहता तो समाज के बीच में ही है। वह कोई ठगी या भ्रष्टाचार तो नहीं करते! युवक युवतियों को आधुनिकता के नाम अनैतिक संबंधों के लिये प्रेरित तो नहीं करते। केवल शादी के नाम पर अंतर्जातीय विवाहों पर खुश होने वाले विद्वान इस बात पर चिंतन नहीं करते कि उसके बाद घर भी चलाना पड़ता है जिसकी समझ युवक युवतियों को होना चाहिये। साथ ही यह भी परिवार चलाने के लिये समाज की जरूरत होती है इसे भुलाना सच्चाई से मुंह फेरना है। भारतीय संत इस बात को समझते हैं इसलिये ही निरंतर आध्यात्मिक ज्योति जगाते रहते हैं।
पिछले अनेक अवसरों पर आसाराम बापू, बाबा रामदेव तथा सुधांशु महाराज पर अनेक आक्षेप किये जाते रहे। यह लेखक इन तीनों में किसी का शिष्य नहीं है पर उसे हैरानी हुई जब आसाराम बापू पर तो तंत्र मंत्र का आरोप लगा दिया-इतनी समझ उन लोगों में नहीं है कि आसाराम बापू उस समाज में पैदा हुए जो अध्यात्म के प्रति समर्पित है पर तंत्रमंत्र की बात से कोसों दूर रहता है। यह सही है कि अनेक लोग धर्म के नाम पर ढोंग कर रहे हैं पर इतनी ऊंचाई बिना तप, अध्ययन और ज्ञान के नहीं मिलती।
योग साधना का अभ्यास जितना करेंगे उतनी ही सिद्धियां आयेंगी और उससे आप स्वयं क्या आपके आसपास के लोगों पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा-मुख्य बात यह है कि आपकी नीयत कैसी है, यह आपको देखना होगा।
दरअसल बाजार और उसका प्रचारतंत्र परेशान है। वह वैलेंटाईन को बेचना चाहता है क्योंकि नवाधनाढ्यों के पास नयी चीजें खरीदने का शौक उसी से ही बढ़ता है और आधुनिक बाजार उसका निर्माता है। महाशिवरात्रि पर कोई ऐसी चीज नहीं बिकती जिसका विज्ञापन मिलता हो। यही हालत क्रिसमस और नववर्ष पर भी होती है क्योंकि गुड़ी पड़वा और मकर सक्रांति तो परंपरागत बाजार का व्यापार है जिसे विज्ञापन करने की आवश्यकता नहीं होती।
दरअसल बाबा रामदेव, आसाराम बापू या सुधांशु महाराज के कार्यक्रमों में एक बहुत बड़ा जनसमुदाय होता है और आधुनिक बाजार के स्वामी और प्रचार प्रबंधक यह देखकर परेशान हो जाते हैं कि उनके बिना यह सब कैसे हो रहा है? दूसरा वहां से अपने लिये ग्राहक ढूंढना चाहते हैं। उनका गुस्सा तब अधिक बढ़ जाता है जब वहां युवक युवतियों का भी समूह देखते हैं क्योंकि उनको लगता है कि यह तो उनको दोहन स्त्रोत हैं, भला वहां क्यों जा रहे हैं।
अनेक संकीर्ण मानसिकता के बुद्धिजीवी उनके प्रवचन कार्यक्रमों में दलित, पिछडे, और अगड़े का भेदभाव छोड़कर जाते हुए लोगों को सहन नहीं कर पाते। उनको लगता है कि इससे तो उनका प्रभाव खत्म हो रहा है। उससे ज्यादा गुस्सा उनको तब आता है जब गैर हिन्दू भी उनसे जुड़ते हैं। उनकी चिंतायें स्वाभाविक हैं और उनको रोकने का हमारा लक्ष्य भी नहीं है। ऋषि प्रसाद, अखंड ज्योति और कल्याण पत्रिकाओं को बिकना अगर बंद हो जाये तो हिन्दी का आधुनिक प्रकाशन अधिक अमीर हो जायेगा। जब देश की हालतें देखते हैं तो अन्य बुद्धिजीवियों की तरह हम भी चिंतित होते हैं पर जब इन संतों और उनके भक्तों की उपस्थिति देखते हैं तो दिल को संतोष भी होता है पर दूसरे असंतुष्ट होकर उनको भी निशाना बनाते हैं। शेष फिर कभी।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियरhttp://rajlekh.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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1 टिप्पणी:
तथ्यपरक लेख. सही कहा कि बाजार नियंत्रकों के पेटदर्द होने लगता है यदि उन्हें अपना बाजार फिसलता दीखे.
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