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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/11/2009

अपनी भाषा, गूंगी भाषा-हास्य व्यंग्य (apni bhasha,goongi bhasha-hasya vyangya)

शाम के समय दीपक बापू अपने घर से बाहर निकल एक निकट के उद्यान में हवा खाने पहुंचे। अंदर प्रवेश करने से पहले ही द्वार पर खड़े होकर उन्होंने देखा कि आदमी को देखा जिसकी पीठ उनकी तरफ थी। उसके बाल कंधे गर्दन तक लटके हुए थे। सिर और शरीर चैड़ा था। उसने चूड़ीदार पायजामा और चमकदार पीला कुर्ता पहने रखा था। दीपक बापू का अनुमान था कि वह आलोचक महाराज ही होंगे इसलिये वह अंदर जायें कि नहीं इस विचार में खड़े हो गये। वह नहीं चाहते थे कि आलोचक महाराज के कटु शब्द वहां घूम रहे अन्य लोगों के सामने सुनकर अपनी भद्द पिटवायें।
इससे पहले वह कोई निर्णय करते उस आदमी ने अपना मुंह फेर कर उनकी तरफ किया। दीपक बापू की घिग्घी बंध गयी। वह आलोचक महाराज ही थे। दीपक बापू खीसें निपोड़ते हुए उनके पास पहुंच गये और हाथ जोड़कर बोले-नमस्ते महाराज, यह आप तफरी के लिये आये हैं! अच्छा है, इससे तंदुरस्ती बढ़ती है।’
आलोचक महाराज ने बिना किसी भूमिका बांधे कहा-‘हम तो पहले ही तंदुरस्त हैं। देखो इतनी बड़ी देह के साथ ही समाज में भी हमारी इज्जत है! तुम्हारी तरह कीकड़ी कवि नहीं है कि अनजान होकर इधर बाग में टहलने आयें। हमें पता था कि तुम शाम को यहां आते हो इसलिये ही तुम्हारा इंतजार कर रहे थे।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज, अभी तो हम तफरी के मूड में हैं फिर कभी बात करेंगे।’
आलोचक महाराज बोले-‘वह फंदेबाज तुम्हारा दोस्त है न! उसे जरा समझा देना। अपने किये की माफी मांग ले वरना हम तुम्हारी कविताओं को अखबार में छपना बंद करवा देंगे।’
दीपक बापू ने अपनी टोपी उतारी और सिर पर हाथ फेराने लगे। आलोचक महाराज बोले-डर गये न!’
दीपक बापू बोले-‘नहीं डरे काहे को? हम तो यह सोच रहे हैं कि कहां आपने मुसीबत ले ली। फंदेबाज हमारे गले में दोस्त की तरह फंसा है वरना हमारा उससे क्या वास्ता? उसकी बेवकूफियों की वजह से हम हास्य कवितायें लिखते हैं वरना तो जोरदार साहित्यकार होते! आप उससे सुलह कर लीजिये वरना वह आपको परेशान करेगा। वैसे आपका झगड़ा हुआ किस बात पर था?’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हारी बात को लेकर। वह एक कार्यक्रम में पहुंच गया। वहां हमने तुम्हारा उदाहरण देकर नये कवियों को समझाया कि देखो उस फ्लाप दीपक बापू को! कभी एक विषय पर ढंग से नहीं लिखता। योजनाबद्ध ढंग से नहीं लिखता। बस वह फंदेबाज मंच पर चढ़ आया और हमें लात घूंसे दिखाने लगा। कुछ बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोल रहा था। हमने तो पहचान लिया क्योंकि उस लफंगे को कई बार तुम्हारे साथ साइकिल पर पीछे बैठे जाते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘शर्मनाक! उसने आप जैसे महान आदमी को अपनी गूंगी मातृभाषा में इतनी भद्दी गालियां दी। हम तो यह गालियां अपनी जुबान से भी नहीं निकाल सकते।’
आलोचक महाराज चैंके-‘वह गालियां दे रहा था! उसकी भाषा अपने समझ में नहीं आयी। हमने तो उसे कई बार अपनी भाषा में बोलते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज उसकी मात्ृभाषा गूंगी है। उसी मेें वह आपको गालियां दे रहा था।
आलोचक महाराज-‘यह कौनसी भाषा है?’
दीपक बापू-‘हमें नहीं मालुम।’
आलोचक महाराज-‘तो तुम्हें मालुम क्या है?’
दीपक बापू-‘यही कि उसकी मातृभाषा गूंगी है। जब वह गुस्से में होता है तब यही भाषा बोलता है।’
आलोचक महाराज बोले-‘उसका मोबाइल नंबर दो। अभी उसको फोन करता हूं और जो शराब की बोतल के पैसे उसको दिये वापस मांगता हूं। मैंने यह सोचकर उस कार्यक्रम में उससे हंगामा फिक्स किया था कि वह तुम्हारा दोस्त है। इससे तुम्हें भी प्रचार मिल जायेगा और तुम कहते हो कि दोस्त नहीं है तो अब देखो उसकी क्या हालत करता हूं? हमें गूंगी भाषा में गालियां देता है। देखो तुम अपनी भाषा वाले हो। हमारा साथ देना। उसके खिलाफ बयान अखबार में देना। यह गूंगी भाषा वाला समझता क्या है?
दीपक बापू ने रुमाल आलोचक महाराज की तरफ बढ़ाते हुए कहा-‘लीजिये महाराज, आवेश में आपका पसीना निकल रहा है। यह आपका हंगामा फिक्स था तो फिर हमेें काहे धमकाने आये।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘उसने यह शर्त रखी थी कि उसकी तरफ से तुम्हारे प्रति वफादारी का प्रमाण पत्र पेश करूं। मगर अब मामला भाषा का है। तुम हम एक हो जाते हैं।’
दीपक बापू बोले-‘कतई नहीं महाराज! आपका झगड़ा हुआ है और इसमें हम कतई नहीं पड़ेंगे। झगड़ा किसी बात पर और नाम जाति, भाषा और धर्म का लेकर लोगों को लड़ाने का प्रयास कम से कम हमारे साथ तो नहीं चलेगा। रहा अखबार में छपने का सवाल तो हम आपके पास नहीं लायेंगे अपनी रचना!
आलोचक महाराज बोले-‘नहीं तुम लाना! पर हम नहीं छपवायेंगे अखबार में। जब लाओगे और नहीं छपेगा तभी तो हमारे गुस्से का पता चलेगा? अपनी भाषा में हमारी जो इज्जत है उसकी परवाह न करने का परिणाम कैसे चलेगा तुमको?’
दीपक बापू बोले-‘महाराज हमें पता है! आप हमारी कविताओं के विषय चुराकर दूसरों को सुनाकर उनसे दूसरी रचनायें लिखवाते हो। आपके पास विषय चिंतन तो है ही नहीं। एकाध बार साल में कहीं रचना छपवाकर एहसान हम पर करते हैं! नमस्कार हम चलते हैं! वैसे आप इस विषय को यहीं बंद कर दें क्योंकि आपने यह राज उजागर कर ही दिया है कि वह हंगामा फिक्स था!’
दीपक बापू घर वापस चल पड़े। रात हो चली थी। इधर दारु की बोतल के साथ फंदेबाज भी उनको अपने ही घर के बाहर खड़ा मिला। उनको देखते ही बोला-‘आओ दीपक बापू। आज तुम्हारे लिये जोरदार खबर लाया हूं। आज मैंने आलोचक महाराज की क्या धुर उतारी है! तुम देखते तो वाह वाह कर उठते! इसी खुशी में यह बोतल खरीद कर अपने घर ले जा रहा था। सोचा तुम्हें बताता चलूं।’
दीपक बापू हंसकर बोले-‘हमें पता है! आलोचक महाराज ने गुस्से में बता दिया कि यह हंगामा फिक्स था! अब तुम अपनी सफाई मत देना।’
फंदेबाज बोला-‘उसने ऐसा किया? अभी जाकर उसकी खबर लेता हूं।’
दीपक बापू बोले-‘यह बोतल घर ले जाकर पीओ। वरना यह भी छिन जायेगी। वह बहुत गुस्से में हैं। वहां जो तुम बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोले रहे थे उसका मतलब उनके समझ में आ गया है।’
फंदेबाज बोला-‘पर वह तो मैं ऐसे ही कर रहा था1’
दीपक बापू-‘हमने उनसे कह दिया कि वह अपनी मात्ृभाषा गूंगी में आपको गालियां दे रहा था। तुम कहते भी हो कि मेरी मातृभाषा गूंगी है!’
फंदेबाज-‘वह तो इसलिये कि मेरी माताजी गूंगी है। यह कोई अलग से भाषा नहीं है। तुमने यह क्या आग लगाई।’
दीपक बापू बोले-‘लगाई तो तुमने! हमने तो बुझाई। दोनों ने हमारा नाम लेकर हंगामा किया और हमने दोनों की कराई लड़ाई।’
दीपक बापू अंदर चले गये इधर फंदेबाज बुदबुदाया-‘अब इसका क्या नशा चढ़ेगा! इनको तो पता चल गया कि यह हंगामा फिक्स था! फिर यह अपनी भाषा और गूंगी भाषा का मुद्दा चिपकाये आये हैं। वह आलोचक महाराज पूरा खब्ती है। खबरों में छपने के लिये वह कुछ भी कर सकता है। इससे पहले कि वह कुछ करे उसे समझाये आंऊ कि गूंगी कोई अलग से भाषा नहीं है। इस दीपक बापू का क्या? यह तो हास्य कविता लिखकर फारिग हो लेगा। मेरी शामत आयेगी। यह बोतल भी आलोचक महाराज को वापस कर आता हूं
वह तुरंत वहां से चल पड़ा।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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