समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/04/2009

शिशुश्रम और मिठाई का डिब्बा-हिंदी हास्य व्यंग्य (child lebour and sweats-hindi hasya vyang)

सुबह दीपक बापू सड़कों पर पानी से भरे गड्ढों में गिरने से बचते हुए जल्दी जल्दी ही आलोचक महाराज के घर पहुंचे। उस दिन बरसात होने से उनको आशा थी कि आलोचक महाराज प्रसन्न मुद्रा में होंगे। इधर उमस के मारे सभी परेशान थे तो आलोचक महाराज भी भला कहां बच सकते थे। ऐसे में दीपक बापू को यह आशंका थी उनकी कविताओं पर आलोचक महाराज कुछ अधिक ही निंदा स्तुति कर देंगे। वैसे भी दीपक बापू की कविताओं पर आलोचक महाराज ने कभी कोई अच्छी मुहर नहीं लगायी पर दीपक बापू आदत से मजबूर थे कि उनको दिखाये बगैर अपनी कवितायें कहीं भेजते ही नहीं थे।

सड़क से उतरकर जब उनके दरवाजे तक पहुंचे तो दीपक बापू के मन में ऐसे आत्मविश्वास आया जैसे कि मैराथन जीत कर आये हों। इधर मौसम ने भी कुछ ऐसा आत्मविश्वास उनके अंदर पैदा हुआ कि उनको लगा कि ‘वाह वाह’ के रूप में उनको एक कप मिल ही जायेगा। उन्होंने दरवाजे के अंदर झांका तो देखा आलोचक महाराज सोफे पर जमे हुए सामने टीवी देख रहे थे। वहां से बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी। उन्होंने आलोचक महाराज
को हाथ जोड़कर नमस्ते की भी और मुख से उच्चारण कर उनका ध्यान आकर्षित करने का भी प्रयास किया-यह करना ही पड़ता है जब आदमी आपकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा हो।
आलोचक महाराज ने उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। दीपक बापू ने जरा गौर से देखा तो पाया कि उनकी आंखों से आंसु निकल रहे थे। दीपक बापू सहम गये। क्या सोचा था क्या हो गया। कहां सोचा था कि मौसम अच्छा है आलोचक महाराज का मूड भी अच्छा होगा। पहली बार अपनी कविताओं पर ‘वाह वाह रूपी कविताओं का कप’ ले जायेंगे। कहां यह पहले से भी बुरी हालत में देख रहे हैं। वैसे दीपक बापू ने आलोचक महाराज को कभी हंसते हुए नहीं देखा था-तब भी जब उनका सम्मान हुआ था। आज इस तरह रोना!
‘क्या बात है आलोचक महाराज! मौसम इतना सुहाना है और आप है कि रुंआसे हो रहे हैं।‘दीपक बापू बोले।
आलोचक महाराज ने कहा-‘देखो सामने! टीवी पर बच्चा रो रहा है। इसके माता पिता ने इसको खुद ऐसे लोगों को सौंपा है जो इस वास्तविक शो में नकली माता पिता की भूमिका निभा रहे हैं। वह लोग इतने नासमझ हैं कि उनको पता ही नहीं कि बच्चा अपनी माता के बिना कभी खुश नहीं रह सकता।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज! यह तो सीन ही नकली है! आप कहां चक्कर में पड़ गये। अब यह टीवी बंद कर दीजिये। हम अपने साथ मिठाई का डिब्बा साथ में ले आयें हैं ताकि आप उनको खाते हुए हमारी यह दो कविताओं पर अपना विचार व्यक्त कर सकें।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘बेवकूफ आदमी! समाज में कैसी कैसी घटनायें हो रही हैं उस पर तुम कभी सोचते ही नहीं हो। अरे, देखो इन बच्चों की चीत्कार हमारा हृदय विदीर्ण किये दे रही है। अरे, हमें इसके माता पिता मिल जायें तो उनको ऐसी सुनायें जैसी कभी तुम्हारी घटिया कविताओं पर भी नहीं सुनाई होगी।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज हमारी कविताओं पर हमें क्या मिलता है? उनको तो इस बच्चे के अभिनय पर पैसा मिला होगा। ऐसे कार्यक्रमों में पहुंचना भी भाग्य समझा जाता है। इन शिशुओं ने जरूर अपने पूर्व जन्म में कोई पुण्य किया होगा कि पैदा होते ही यह कार्यक्रम उनको मिल गया। बिना कहीं प्रशिक्षण लिये ही अभिनय करने का अवसर मिलना कोई आजकल के जमाने में आसान नहीं है। खासतौर से जब आपके माता पिता ने भी यह नहीं किया हो।’
दीपक बापू की इस से आलोचक महाराज को इतना गुस्सा आया कि दुःख अब हवा हो गया और इधर बिजली भी चली गयी। इसने उनका क्रोध अधिक बढ़ा दिया। वह दीपक बापू से बोले-‘रहना तुम ढेर के ही ढेर! यह पूर्व जन्म का किस्सा कहां से लाये। तुम्हें पता है कि अपने देश में बाल श्रम अपराध है।’
दीपक बापू ने स्वीकृति में यह सोचकर हिलाया कि हो सकता है कि आलोचक महाराज की प्रसन्नता प्राप्त हो। फिर आलोचक महाराज ने कहा-‘अरे, इस पर कुछ लिखो। यह बाल श्रम कानून के हिसाब से गलत है। इस पर कुछ जोरदार लिखो।’
दीपक बापू बोले-महाराज, आपके अनेक शिष्य इस पर लिख रहे हैं। हमारे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। यह शिशु, बालक, नवयुवक, युवक, अधेड़ और वृद्ध का संकट अलग अलग प्रस्तुत किया है जबकि हमें सभी का संकट एक दूसरे से जुड़ा दिखाई देता है। फिर इसमें भी भेद है स्त्री और पुरुष का। हम यह विभाजन कर नहीं पाते। हमने तो देखा है कि एक का संकट दूसरे का बनता ही है। वैसे आपने कहा कि यह बालश्रम कानून के विरुद्ध है पर यह तो शिशु श्रम है। इस विषय पर आप अपने स्थाई शिष्यों से कहें तो वह अधिक प्रकाश डाल सकेंगे। वैसे तो शिशु रोते ही हैं हालांकि उनको इसमें श्रम होता है और इससे उनके अंग खुलते हैं।’
आलोचक महाराज उनको घूरते हुए बोले-‘मतलब तुम्हारे हिसाब से यह ठीक हो रहा है। इस तरह बच्चों के रोने का दृश्य दिखाकर लोगों के हृदय विदीर्ण करना तुम्हें अच्छा लगता है। यह बालश्रम की परिधि में नहीं आता! क्या तुम्हारा दिमाग है कि इसे स्वाभाविक शिशु श्रम कह रहे हो?’
दीपक बापू बोले-‘महाराज, हमने कहां इसे जायज कहा? हम तो आपके शिष्यों के मुताबिक इसका एक विभाजन बता रहे हैं। हम तो कानून भी नहीं जानते इसलिये बालश्रम और शिशुश्रम में अंतर लग रहा है। वैसे माता पिता अपने बच्चे को इस तरह दूसरों को देकर पैसा कमाते होंगे। हालांकि वह भद्र लोग हैं पर इतना तो कर ही सकते हैं कि पैसा मिलने पर बच्चा कुछ देर रोए तो क्या? वैसे आपको तो यह पता ही होगा कि इस देश में इतनी गरीबी है कि लोग अपना बच्चा बेच देते हैं। कई औरतें किराये पर कोख भी देती हैं। यह अलग बता है कि ऐसे मामले पहले गरीबों में पाये जाते थे पर अब तो पैसे की खातिर पढ़े लिखे लोग भी यह करने लगे हैं। अरे, आप कहां इन वास्तविक धारावाहिकों की अवास्तविकताओं में फंस गये। आप तो हमारी कविता पढ़िये जो उमस और बरसात पर लिखी गयी हैं बिल्कुल आज ही!’
आलोचक महाराज ने कागज हाथ में लिये और उसे फाड़ दिये फिर कहा-‘वैसे भी तुम श्रृंगार रस में कभी नहीं लिख पाते। जाओ, इस कथित शिशुश्रम पर कुछ लिखकर लाओ। और हां, हास्य व्यंग्य कविता मत लिख देना। इस पर बीभत्स रस की चाशनी में डुबोकर कुछ लिखना और मुझे पंसद आया तो उसे कहीं छपवा भी दूंगा।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज, आपके चेलों का असर आप पर भी हो गया है। यह तो गलत है कि आपके शिष्य बालश्रम, नारी अत्याचार, युवा बेरोजगारी पर लिखते हैं पर शिशु श्रम पर हम लिखें।’
आलोचक महाराज ने घूरकर पूछा-यह बालश्रम और शिशुश्रम अलग अलग कब से हो गये?’
दीपक बापू बोले-‘हमें पता नहीं! पर हां, आपके शिष्यों को पढ़ते पढ़ते हम कभी इस विभाजन की तरफ निकल ही आते हैं। लिखते इसलिये नहीं कि हमें लिखना नहीं आता। वैसे आप कह रहे हो तो लिखकर आते हैं।’
दीपक बापू मिठाई का डिब्बा हाथ में वापस लेकर जाने लगे तो आलोचक महाराज बोले-‘यह मिठाई का डिब्बा वापस कहां लेकर जा रहे हो।’
दीपक बापू बोले-‘अभी आपके कथानुसार दूसरी रचना लिखकर ला रहा हूं। तब यहां खाली हाथ आना अच्छा नहीं लगेगा। इसलिये साथ लेकर जा रहा हूं।’
ऐसा कहते ही दीपक बापू कमरे से बाहर निकल गये क्योंकि उनको आशंका थी कि कहीं वह छीनकर वापस न लें। बाहर निकल कर वह इस बात से खुश हुए कि उनकी कवितायें सुरक्षित थी क्योंकि उनकी कार्बन कापी वह घर पर रख आये थे, वरना तो शिशुश्रम विषय पर उनके साथ ही मिठाई का डिब्बा भी भेंट चढ़ जाने वाला था।

..............................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

कोई टिप्पणी नहीं:

लोकप्रिय पत्रिकायें

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर