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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/27/2019

साधु भी नृप के दरबार में रत्न रूप सजे-दीपकबापूवाणी (sadhu bhi raja ke darbar mein ratna roop mein saja hain-DeepakBapuWani)

साधु भी नृप के दरबार में रत्न रूप सजे,  उधार के नारों से अंधेरे में खाली कूप बजे।
‘दीपकबापू’ महलों में बस गयी बेरहमी, आम लोग तरसे ऊंची छत पर करे धूप मजे।।
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विचारवान करते परस्पर शब्दों की जंग, अंतहीन बहस से कभी न होते तंग।
‘दीपकबापू’ सलाहकार बाज़ार में खड़े हैं, वही श्रेष्ठ होता रुपया जिसके संग।।
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अपने स्वार्थ मार्ग पर सदा चलते, चालाकियों के सहारे सबके पेट पलते।
घर चकाचौंध से चमक रहे हैं, ‘दीपकबापू’ गरीब का चिराग देख जलते।।
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मान या न मान वह काम निकाल जायेंगे, ज़माने के ठेकेदार अपने दाम ले जायेंगे।
‘दीपकबापू’ यकीन बंद बोतल में शराब जैसा, तोड़ेंगे तभी तो नशा शाम ले पायेंगे।।
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दिल में कुछ और बातों में कुछ और है, फटा कुर्ता पहने पर खातों में कुछ और है।
शब्दों से गरीब में भगवान दिखाते, ‘दीपकबापू’ फुर्सती सेवक कुर्सी पर कुछ और है।
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हर इंसान गुलाम है जिस पर होता कर्ज, वह कमजोर है जिसके शरीर में होता मर्ज।
‘दीपकबापू’ जुबान से बोल जाते चाहे जो शब्द, दिल में कायरता का अहसास है दर्ज।।
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सब भगवान के दर हाथ जोड़े खड़े हैं, याचना के ढेर उनके सिर पर पड़े हैं।
‘दीपकबापू’ संसार के विषयों से मुक्ति न चाहें, पूछते फिरें खजाने कहां गड़े हैं।।
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