अनेक लोगों में अध्यात्मिक भाव है प्राकृतिक रूप से विद्यमान होता है पर
कभी उनका ध्यान इस तरफ नहीं जाता। विषयों
के रसस्वादन से उत्पन्न विषरूप मानसिक तनाव और अध्यात्मिक अमृत से दूरी के बीच वह
झूलते हैं। उन्हें यह समझ में नहीं आता कि
वह कैसे सुख अनुभव करें। जीवन के सुख का
सारा सामान जुटाने के बावजूद उन्हें सुख अनुभव नहीं होता। ऐसे लोगों को एकांत
चिंत्तन अवश्य करना चाहिये तब उनकी ज्ञानेंद्रियां स्वतः जागत हो जाती हैं। हमारे
देश में को कथायें, सत्संग और धार्मिक त्यौहार इतने होते हैं कि लोगों में श्रवण, पठन पाठन, तथा दृश्यों से उनमें
ज्ञान की धारा स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है। अनेक लोग मंदिरों में जाकर भी अपनी आस्था को
जीवंत बनाये रखने का प्रयास करते हैं जिससे उनके अंदर अध्यात्मिक तत्व तो बना रहता
है फिर भी उन्हें शांति नहीं मिलती है। आजकल तो योग साधना का प्रचार भी हो रहा है
जिसके अभ्यास से लोगों में देह तथा मन में पवित्र आती है। फिर भी ज्ञान के अभाव का दृश्य दिखाई देता है।
श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि-------------------इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी।मन किरसाणु हरि रिदै जंमाइ लै इउ पावसि पटु निरवाणी।।हिन्दी में भावार्थ-हमारी मनुष्य देह धरती के समान है, एक किसान की तरह इसमें शुभ भाव के बीज बोकर परमात्मा के नाम स्मरण रूपी पानी से खेती की जाये तो जीवन धन्य हो जाता है।विखै विकार दूसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई।जपु तपु संजमु होहि जब राखे कमलु विबसै मधु अजमाई।।हिन्दी में भावार्थ-विषय विकार तो ऐसे पौद्ये जिनमें मन लगाना व्यर्थ है उन्हें उखाड़कर जप, तप और संयम के पौद्ये हृदय में कमल की भाव रूप वृक्ष उगायें जिनसे मधुर रस टपकता है।
इसका कारण यह है कि सामान्य जनों में उस तत्वज्ञान को धारण करने की शक्ति
का अभाव है जो केवल ध्याना, धारणा और समाधि से आती है।
परमात्मा की हार्दिक भक्ति से लाभ होता है पर हृदय और आत्मा का मिलन किस
तरह हो, यह ज्ञान बहुत कम लोगों हैं। किसी की कहने या स्वयं के सोचने से हार्दिक
भक्ति नहीं हो पाती। इसके लिये यह आवश्यक
है कि यह बात समझ ली जाये कि संसार के विषयों से हम सदैव संपर्क नहीं रख
सकते। हमें जीवन में जो सुख सुविधायें
मिलती हैं वह हमारा अध्यात्मिक लक्ष्य नहीं होती। अनेक लोगों ने आकर्षक भवन बनाये
हैं। उनमें पेड़ पौद्ये और बाग लगे होने के
साथ ही फव्वारी भी होते हैं। अगर कोई लघु
श्रेणी का व्यक्ति देखे तो आह भरकर रह जाये पर इस सच को सभी जानते हैं कि ढेर सारी
भौतिक उपलब्धियों के बावजूद संपन्न लोग सुख का अनुभव नहीं कर पाते।
इसका एक ही तरीका है कि अध्यात्मिक अभ्यास के समय सांसरिक विषयों के प्रति
एकदम निर्लिप्पता का भाव हृदय में लाया लाये।
कहने में सहज लगने वाली बात प्रारंभ में अत्यंत कठिन लगती है मगर निरंतर
ध्यान की प्रक्रिया अपनाने के बाद धीमे धीमे ऐसा अभ्यास हो जाता है कि मनुष्य का
मन भोग की बजाय योग की तरफ इस तरह प्रवृत्त होता है कि उसका जीवन चरित्र ही बदल
जाता है। मूल बात संकल्प की है। मन में
कहीं बाहर से लाकर बोया नहीं जा सकता। हम
अगर निरंतर बाहरी विषयों की तरफ ध्यान लगायेंगे तो मन में भोग के बीज पैदा होंगे।
वहां से मन हटाते रहे तो स्वतः ही अंतर्मन से योग के बीज मन में आयेंगे। इसे हम ज्ञान और विज्ञान का संयुक्त सिद्धांत
भी कह सकते हैं।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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