रविवार को जब किसी विशिष्ट रचना लिखने का मन होता है तब दिमाग में कोई एक विषय नहीं सूझता। इस संसार में दो तरह के ही विषय होते हैं एक अध्यात्मिक दूसरा भौतिक! अध्यात्मिक विषयों के ज्ञान के विस्तार की धारा अंततः भौतिकता की तरफ ही जाती है क्योंकि हमारी आत्मा इस देह को धारण करती है इसलिये उनसे बचा जा नहीं सकता। यदि यह देह न हो तो अध्यात्मिक ज्ञान का लाभ भी कुछ नहीं होता। इसलिये अध्यात्मिक ज्ञान का रथ भौतिक विषय की तरफ जाता ही है। अंतर यह है कि भौतिक विषयों की जानकारी होने पर भी कोई मनुष्य सफल तो हो जाता पर अध्यात्मिक ज्ञान के बिना वह अपनी सफलता का आनंद नहीं पा सकता। एक सफलता उसे दूसरे लक्ष्य पाने की प्रेरणा देकर तनाव बढ़ा देती है। इसके विपरीत अध्यात्मिक ज्ञानी को भौतिक विषय के लिये अलग से अभ्यास की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि तत्वज्ञान होने पर ज्ञानी क्षेत्रज्ञ हो जाता है-यह स्वरूप श्रीमद्भागवत गीता के नियमित अध्ययन करने पर ही है-तब वह किसी प्रसंग के सामने आने पर संबंधित विषय को तत्काल समझ लेता है। अध्यात्म ज्ञान में अंततः भौतिकता के मूल तत्व ही समझाये जाते हैं इसलिये किसी खास विषय के लिये अलग से किताब पढ़ने या अनुभव लेने की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी ज्ञान साधक के लिये कोई सफलता न प्रसन्नता प्रदान करने वाली होती है न उसे कोई असफलता दुःख देती है। देह के रहते हुए सांसरिक कर्म में लगकर ज्ञानार्जन और भक्ति भी करना है यही तत्वज्ञानी और साधक का लक्ष्य रह जाता है।
मुख्य बात यह है कि तत्वज्ञानी और साधक दृष्टा हो जाता है। मौन रहता है तो भी उसक चेहरा कुछ बोलता दिखता है। आंखें बंद कर ले तो भी वह कुछ देख रहा होता है। अध्यात्म का किताबी ज्ञान तो सभी को होता है पर अज्ञानी उसे बघारता है और ज्ञानी बिना पूछे कुछ बोलता नहीं है। भारत का अध्यात्म ज्ञान बाह्य रूप से अंततः उकताने वाला लगता पर जब हृदय में उसे धारण कर लिया जाये तब अत्यंत मनोरंजन देना वाला भी है। अज्ञानी बिना बोले रह नहीं पाता और ज्ञानी मौन होकर आनंद लेता है। सामान्य आदमी हर विषय में अपनी सक्रियता दिखाने को तत्पर रहता है कि कहीं उसे अज्ञानी न समझा जाये और ज्ञानी दर्शक की तरह संसार के पात्रों के अभिनय का आनंद लेता है। अपनी सक्रियता हमेशा दिखाने का लोभ वह संवरण कर लेता है। एक तरह से वह परमपिता परमात्मा के हाथ से बनी फिल्म का आनंद लेता है। बोलने के साथ ही अपनी ऊर्जा बरबाद करने पर आदमी क्षणिक आनंद लेने के बाद थकहार बैठ जाता है। ज्ञानी मौन रहकर दृष्टा की तरह कार्य करते हुए आनंदित होता है। वह थकता नहीं क्योंकि वह अपनी ऊर्जा निरर्थक बरबाद नहीं करता।
श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि तत्वज्ञान प्रारंभ में विषतुल्य लगता है पर जब उसे आत्मसात कर लें तब वही अमृतमय हो जाता है। सांसरिक विषयों में लिप्पतता प्रारंभ में अमृतमयी लगती है पर उसका परिणाम अत्यंत विषदायी होता है। यही कारण है कि हम आज देखते हैं कि कोई सुखी नहीं है। वजह यह है कि लोगों के पास अध्यात्म ज्ञान का अभाव है। अपने मन को लुभाने के लिये कहां जायें? इसलिये वह सांसरिक विषयों में ही विचरते हैं। फिल्म से ऊबे क्रिकेट में मन लगाया। क्रिकेट से ऊबे तो सामने टीवी पर आंखें गढ़ा दीं। संसार में अपने मन और मस्तिष्क को व्यस्त रखने का एक ही रास्ता सभी के पास बचता है वह है पैसे कमाना।
एक बात मजे की है कि लोग कहते हैं कि जब हम सांसरिक विषयों से निवृत होंगे तो भगवान का भजन करेंगे पर यह असंभव होता है। सेवा या व्यवसाय से निवृत होकर लोग मंदिर जाते हैं पर उनका मन नहीं लगता। उद्यानों की सैर करते हैं फिर भी हृदय प्रसन्न नहीं होता। पिछली यादों का बोझ लिये लोग अपनी बोरियत दूसरों पर डालकर ही जान बचाते हैं। उनकी बात कोई न भी सुनना चाहे वह जबरन सुनाते हैं।
दीपक बापू हमेशा की तरह एक मंदिर में गये। मंदिर से बाहर आकर वह वहीं रखी एक बैंच पर ध्यान लगाने बैठे। उनके पास ही दूसरी बैच पर एक वृद्ध आदमी बैठा था। उन्होंने दीपक बापू को प्रणाम किया तो उन्होंने भी हाथ जोड़कर जवाब दिया। थोड़ी देर बाद उस आदमी ने दीपक बापू से पूछा-‘‘आप यहां रोज आते हैं?’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘अक्सर, आना होता है।’
उस आदमी ने कहा-‘‘मैं तो अब रोज यहां आता हूं। घर पर हम मियां बीबी अकेले रहते हैं। दोनो बच्चे विदेशचले गये हैं। अब दुकान बंद कर दी है। काम होता नहीं है।’
दीपक बापू ने कहा-‘‘आप अच्छा करते हैं! मंदिरों में मन लग जाये तो एक तरह से आनंद आता ही है।’’
अब तो वह आदमी शुरु हो गया-‘‘ मेरे दोनों बेटे और बहुऐं विदेश में बस गये हैं। मेरा एक बेटा विदेश में इंजीनियर है दूसरा डाक्टर है। बहुओं में भी एक बड़ी कंपनी में अधिकारी है और एक बहुत एक बड़े प्रतिष्ठत शिक्षा संस्थान में प्राचार्य है। हमारी बहु का प्राचार्य पद सबसे अधिक बड़ा है। उसका संस्थान विश्व प्रसिद्ध हैं!’’
दीपक बापू ने पूछा-‘‘आपका स्वास्थ्य कैसा है?’’
उस आदमी ने कहा-‘‘स्वास्थ्य ही तो अब साथ नहीं दे रहा। यहां भी आकर परेशानी होती है। घर पर बैठो तो परेशानी! मंदिर में आता जरूर हूं पर मन तो यहां भी नहीं लगता।’’
दीपक बापू ने कहा-‘‘पहले भी मंदिर इसी तरह रोज आते रहे होंगे?’
उस आदमी ने कहा-‘‘नहीं! कभी कभार ही आते थे वह अपनी पत्नी के कहने पर! तब इतना समय नहीं मिलता था।’’
सच बात यह है कि अध्यात्म के प्रति आकर्षण अगर बचपन में पैदा नहीं हुआ तो बाद में उससे आनंद पाने की आशा करना बेकार है-लगभग
ऐसे ही जैसे बोये पेड़ बबूल का आम कहां से होय? हमारा हृदय और मस्तिष्क भी एक तरह से जमीन ही है। अगर उसमें प्रारंभ में ही अध्यात्म ज्ञान के बीज न बोये तो फिर सांसरिक विषयों से अपनी इच्छा से संपर्क टूटे या जबरन धकियाये जायें तब अपने अंदर शांति को ढूंढना असंभव है। मौन रहना तब छूट ही जाता हैं। किसी के सामने न होने पर जुबान से शब्द भले न निकलें पर मन में फंसे अंदर बहुत शोर करते हैं। ऐसे में जिन लोगों को बचपन से ही अध्यात्म के गुण मिल गये हैं और वह शांति के साथ जी रहे हैं उन्हें अपने गुरुजनों, माता पिता तथा परमात्मा का आभार मानना चाहिए।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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