ब्रज की होली पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। होली पर अनेक गीत ऐसे रचे गये हैं जिनमें बालरूप में भगवान श्रीकृष्ण के शामिल होने की कल्पना सहज भाव से हृदय में उभरती है। गोपियों के साथ श्री कृष्ण के होली के अवसर पर रंग खेलने की बात साकार रूप में भक्ति करने वालों को बहुत सुहाती है। होली को रंगों का त्यौहार कहा गया है और तत्वज्ञानियों की दृष्टि में सांसरिक रंग मनुष्य की आंखों को मोहित करते हैं और इससे वह अंतर्मन के अमूर्त रूप का दर्शन नहीं कर पाता। वैसे जिस तरह समय के साथ आधुनिक विज्ञान के कारण मनुष्य के पास भोग विलास के ऐसे साधन उपलब्ध हो गये हैं जो आंखों के सामने रंग ही रंग लाते हैं इसलिये होली पर रंग खेलने का प्रचलन कम होता जा रहा है। फिर भी लोगों के मन में उल्लास और उत्साह का वातावरण तो रहता ही है।
बीच में ऐसा दौर आया था जब होली के अवसर पर लोग कीचड़ वगैरह फैंककर दूसरों को हानि पहुंचाते थे। इसके अलावा बुरी तरह से मजाक करने का भी सिलसिला भी चलने लगा जिसने अनेक शांतिप्रिय लोगों को इस त्यौहार से विरक्त कर दिया। हालांकि बाद में सरकारी एजेसियों ने ऐसी घटनाओं को रोकने के इंतजाम शुरु किये और उसमें वह सफल रही। अब शांतिप्रिय आदमी चाहे तो धुलेड़ी पर घर से बाहर निकला सकता है। वैसे भी बढ़ती महंगाई में महंगे रंग खरीदकर अब कोई अनजान आदमी से होली नहीं खेलना चाहता। बहरहाल उत्तर भारत में होली का त्यौहार जिस तरह सांसरिक रंगों से मनाया जाता है उसी तरह उसके अध्यात्मिक रंग भी है। कुछ लोग भक्ति भाव से भजन करते हैं तो कुछ लोगों को चिंतन करना भी रास आता है।
बात ब्रज की होली की हो तब भगवान श्रीकृष्ण की चर्चा होने पर जहां साकार उपासक प्रसन्न होते हैं वहीं निराकार तथा ज्ञानी उपासक श्रीमद्भागवद में तत्वज्ञान का रहस्य का विचार करके गद्गद् होते हैं। सच तो यह है कि एक बार वृंदावन से निकलने के बाद भगवान श्रीकृष्ण फिर वापस लौटे ही नहीं। वहां से निकलते ही उन्होंने कंस का वध कर उसकी कैद में रह रही अपनी जननी देविक तथा जनक वासुदेव को मुक्त करवाया। उस समय उनकी आयु छोटी थी इसलिये कंस के समर्थकों से दूर रखने के लिये उन्हें वृंदावन वापस नहीं लौटाया गया। उसके बाद बाणासुर के प्रकोप से अपने लोगों को बचाने के लिये वह द्वारका चले गये। फिर अपने दैहिक जीवन का पूरा समय उन्होंने वहीं बिताया। उनकी विरह में गोपियां पूरा जीवन जीती रहीं पर वह उनका बालकृष्ण तो युवक हो गया था जो अब पूरे संसार में धर्म की स्थापना के लिये उनके प्रति निष्ठुरता दिखा रहा था। वह धर्म जिसका कोई नाम नहीं था बल्कि जिसका आशय सद्आचरण और सभ्य जीवन से था। उसका संदेश देने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी निरंतर सक्रियता बनाये रखी जिसे उनकी लीला भी कहा जाता है। श्रीमद्भागवत जैसा अनुपम ग्रंथ उनकी इन्हीं लीलाओं के बीच से निकलकर इस प्रथ्वी पर अवतरित हुआ। सारी दुनियां में विभिन्न धर्म हैं। अनेक लोग विभिन्न रूपों में परमात्मा के स्वरूप को मानते हैं। इनमें कई भगवान श्रीकृष्ण के उपासक नहीं हैं। अन्य धर्मों की बात क्या करें, हिन्दू धर्म में ही भगवान श्रीकृष्ण को न मानने वाले भी हैं। वह अन्य देवताओं या भगवान के अन्य स्वरूपों को भजते हैं। इसके बावजूद श्रीमद्भागवत को पूरी दुनियां तथा धर्मों के लोग अलौकिक और तत्वज्ञान से परिपूर्ण ग्रंथ मानते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान नहीं बल्कि विज्ञान भी है। यही कारण है कि उस पर आधुनिक विज्ञानी भी शोध करते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूं।’ वह प्रहलाद जिसे उसकी बुआ होलिका मारना चाहती थी। होलिका के पास एक चादर थी। उसे वरदान था कि वह जिस पर भी डालेगी वर मर जायेगा पर उसका स्वयं का बालबांका भी नहीं होगा। उसने प्रहलाद को गोदी में लिया और वह चादर डाल दी। उसी समय हवा तेज चली और प्रहलाद पर डली चादर उड़कर होलिका पर गिरी और वह जल गयी। इसी अवसर के स्मरण में होली पर्व आयोजित किया जाता है। आमतौर से हमारा समाज देवताओं का पूजक है पर दैत्य होकर भी प्रहलाद भगवद्स्वरूप कर सके जो कि उनकी भक्ति का ही परिणाम था। जब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘दैत्यों में मैं प्रहलाद हूं;’ तो वह इस बात का संदेश भी देते हैं कि मनुष्यों को जातीय भाव से मुक्त होना चाहिए। गुणों के आधार पर मनुष्य की पहचान करना सही है। यही कारण है कि श्रीगीता में उन्होंने ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’ तथा ‘इंद्रियां ही इंद्रियों में बरतती हैं’ जैसे वैज्ञानिक फार्मूल या सूत्र दिये। ऐसे में चिंतन करते हुए ब्रज की होली भूल जाती है क्योंकि तत्वज्ञानी तो प्रतिदिन होली और दिवाली मनाते हैं। उनको प्रसन्नत और आनंद प्राप्त करने के लिये अवसर या दिन का इंतजार नहीं करना पड़ता
होली के इस पावन पर्व पर भगवान श्रीकृष्ण तथा भक्ति के प्रतीक श्री प्रहलाद को कोटि कोटि नमन। इस अवसर पर अपने ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को हार्दिक बधाई।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
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