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7/30/2010

विकास और लोग-व्यंग्य कविता (vikas aur log-hindi vyangya kavita)

गरीबी हटाओ, देश बचाओ,
भ्रष्टाचार भगाओ, विकास लाओ,
जैसे नारे सुनते हुए बरसों बीत गये
मगर हालात हैं कि सुधरे नहीं।
हर बरस बजट के तीर जनकल्याण के अंधेरे में
कुछ इस तरह चलते कि
जहां पहुंचंे वहां गरीब नज़र नहीं आता,
रंगेहाथों पकड़े गये रिश्वत लेते कई
मगर हर कोई अपने हाथ सफेद कर बरी हो जाता,
तालाब खुदते गये काग़जों पर
लबालब हो गयी कई लोगों की जेबें
परवाह किसे है यहां देखने की
प्यासों ने पानी के बर्तन भरे कि नहीं।
नतीज़ा यही है कि देश कर रहा है विकास
लोग खड़े है वहीं की वहीं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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