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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/30/2010

नतीजा यह कि कोई सुखी नहीं-हास्य व्यंग्य (natija yah ki koyee sukhi nahin-hasya vyanaya)

पश्चिमी वैज्ञानिकों ने एक शोध किया है जिसके अनुसार लोग अपने दुःख से कम दूसरे के सुख से अधिक तनाव ग्रस्त रहते हैं। 24 देशों के 19 हजार लोगों पर यह शोध किया गया है। इससे पता चलता है कि लोग अपने वेतन कम होने से नहीं बल्कि दूसरे की ज्यादा है इससे ज्यादा परेशान हैं। अब यह पता नहीं कि इसमें अपना देश शामिल है कि नहीं पर इतना संतोष है कि 23 दूसरे देश भी इसमें शामिल हैं जहां अपनी तरह के लोग रहते हैं। अगर अकेले अपने देश की बात होती तो कितना तनाव बढ़ता यह समझ ही सकते हैं।
आश्चर्य इस बात का है कि पश्चिमी विज्ञान तथा शिक्षा संस्थाओं को हर चीज के लिये अनुसंधान की आवश्यकता होती है। वह आज जिस विषय पर शोध कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहे हैं उस पर हमारे देश की राय बहुत पुरानी है। यही कारण है कि हमारे देश के अध्यात्मिक महापुरुष हमेशा ही ईर्ष्या और द्वेष से दूर रहने की बात करते हैं-यह अलग बात है कि लोग सुनते खूब हैं पर उस पर अमल नहीं करते।
अपने यहां तो इस संबंध में अनेक कथायें हैं। एक भक्त की भक्ति पर सर्वशक्तिमान प्रसन्न हो गये और उससे वरदान मांगने को कहा। उसने कहा कि ‘भगवान मेरे पड़ौस में सभी बड़े लोग रहते हैं एक में ही तुच्छ आदमी यहां फंसा हूं। अतः ऐसा कुछ करिये कि मैं भी सभ्रांत वर्ग में आ जाऊं।’
सर्वशक्तिमान ने कहा‘तथास्तु! मगर पड़ौस की समस्या तो भाग्य से आई है उसे मैं बदल नहीं सकता। अलबत्ता तुम्हारा कल्याण करने का मेरा दायित्व है। इसलिये तुम्हारे पास ढेर सारा धन आयेगा। तुम जैसी चाहत करोगे वैसा होगा पर पड़ौसी के पास उससे दुगुना जायेगा। इसे मैं बदल नहीं सकता।’
सर्वशक्तिमान ने वरदान दिया और गायब हो गये।
उस भक्त ने कहा-‘मुझे अपनी पत्नी के लिये दो कंगन चाहिए।’
तत्कला कंगन वहां प्रकट हो गये, मगर पड़ौसन के घर चार गये।
भक्त ने कहा-‘मुझे एक कार चाहिये।
कार आ गयी वह वातनुकूलित पर पड़ौसी के पास दो पहुंच गयी।
भक्त अपनी उपलब्धि में यह भूल गया कि पड़ौसी उसकी तपस्या का बिना किसी मेहनत के दोगुना लाभ उठा रहा है।
इधर पत्नी कंगन लेकर पड़ौसन के पास पहुंची और इतराती हुई बोली-‘‘हमारे वो दो कंगन लाये हैं। साथ में एक जोरदार वातानुकूलित कार भी खरीदी है।’
पड़ौसन बोली-उंह! मेरे पति चार कंगन ले आये हैं और दो कार खरीदी हैं। हमारे से तो तुुम्हारी तुलना न कल थी और न आज है।’
भक्त की पत्नी तो जैसे जमीन पर आकर गिरी। घर आकर पति से लड़ते हुए बोली-‘चाहे कुछ भी हो जाये। हम फकीर हो जायें पर पड़ौसी अधिक अमीर नहीं बनना चाहिये।’
भक्त सहम गया उसने पहले तो अपने कंगन और कार गायबी की जिससे पड़ौसी को दुगुनी हानि हुई। अब उसने कहा कि-‘मेरी एक आंख फूट जाये, एक हाथ निकल जाये।’
पड़ौसी की दोनों आंखें चली गयी और हाथ भी। ऐसा प्राकृतिक संकट देखकर सर्वशक्तिमान प्रकट हुए और भक्त से बोल -‘यार, भ्रमित होकर तुम्हें वरदान दे गया था सो वापस ले रहा हूं। इस तरह की खुराफात करना हमारे धर्म के विरुद्ध है। ये ले अपनी एक आंख और एक हाथ ताकि पड़ौसी संकट से मुक्त हो जाये।’
भक्त को गुस्सा आया और वह बोला-‘यह क्या? आंख और हाथ मेरे हैं अगर में उनको त्याग रहा हूं तो उससे आपका क्या मतलब?’’
सर्वशक्तिमान बोले-‘यह महान त्याग है, पर मेरे पास दूसरा वरदान देने का अधिकार नहीं है क्योंकि घर से निकलते हुए पत्नी ने मुझे चेता दिया था कि अगर अब ऐसा हुआ तो घर में घुसने नहीं दूंगी।’
पुरानी कहानी है जिसे हास्य रूप में प्रस्तुत किया गया है। पश्चिम वैज्ञानिक अगर भारतीय अध्यात्म दर्शन तथा पंचतंत्र में से कहानियां उठाकर देखें तो उनको अनेक प्रकार के प्रयोग करने के लिये पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मगर उनसे क्या कहें देश के बुद्धिजीवियों के ही बुरे हाल हैं सभी विदेशियों के प्रशंसक हैं। अपने अध्यात्म ज्ञान में तो उनको पोंगापंथी दिखाई देती है। अब देखना इसी पश्चिमी निष्कर्ष पर बुद्धिजीवी समाज बहस करता दिखेगा। जहां तक हम जैसे आम लोगों का सवाल है ऐसे अनेक निष्कर्षों से अपने महापुरुषों की कृपा से पहले से ही अवगत है। यही कारण है कि दूसरे के सुख को देखकर मुंह फेर लेते हैं कि कहीं अपने दुःख न याद आने लगें। वह सुख उससे छोड़ दे इसकी तो कामना भी नहीं करते। इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इससे केवल अपना खून जलता है। इस सच को भी जानते हैं कि भारत में गरीबी, बेकारी और भ्रष्टाचार चाहे कितना भी है पर लोग दुःखी इस बात से अधिक हैं कि उनके आसपास के लोग सुखी हैं। नतीजा यह है कि कोई सुखी नहीं है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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