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7/23/2009

निरर्थक कौतुहल- आलेख ( social hindi article)

सच बात तो यह है कि लोग अब कल्पना और सच का अंतर ही भूल गये हैं। टीवी धारावाहिकों हों या किताबों में शब्द और चित्र जिनमें सनसनी या रोमांच होता है उसमें दर्शक और पाठक इस तरह लिप्त हो जाते हैं जैसे कि कोई सच देख रहे हों। कई लोग तो टीवी धारावाहिकों को इतना खलपात्रों सच मान लेते हैं कि वह उनको रात में सताते हैं। सभी लोग जानते हैं कि खेल हो या फिल्म उनमें पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार लोगों में कौतूहल पैदा करने के वाले दृश्य बनाये जा रहे हैं। फिर भी वह उस निरर्थक कौतूहल में लिप्त हो जाते हैं।
इसके पीछे संगीत का उपयोग किस तरह होता है यह तो कोई विशारद ही समझ सकता है। अब तो यह हालत है कि क्रिकेट में चैके और छक्के पर लोगों में अधिक कौतूहल पैदा करने के लिये संगीत और नृत्य का सहारा लिया जाने लगा है।
इस तरह का निरर्थक कौतूहल करने की आदत हमारी अज्ञानता का ही प्रमाण है। हमारे पुराने ऋषि और मुनि इस तरह के कौतूहल से बचने की सलाह देते हैं। फिर आजकल बाजार इतना ताकतवर हो गया है कि तो एक के बाद एक नये कौतूहल पूर्ण दृश्य पैदा करता जा रहा है। एक धारावाहिक या यौन सामग्री से परिपूर्ण वेबसाईट पर प्रतिबंध लगाने से कुछ नहीं होने वाला। यह राज्य की नाकामी से अधिक हमारे समाज में गुरु की भूमिका निभाने की नाकामी है। सच बात तो यह है कि प्रतिबंध लगाना ही हमारे समाज की बौद्धिक क्षमताओं का प्रमाण बनता जा रहा है। यौन सामग्री से संपन्न अनेक वेबसाईट या धारावाहिक भी इस देश के समाज का कुछ नहीं बिगाड़ सकते अगर हमारे ं गुरु का दायित्व निभाने वाले लोग पूरी क्षमता और ईमानदारी से काम करते।
वैसे इस तरह की वेबसाईट या धारावाहिकों को देखने वाला एक छोटा तबका है जो हमारे देश की इतनी बड़ी बृहद जनसंख्या को देखते हुए बहुत कम है। वह भी ऐसा ही है जिसके पास समय और पैसा अधिक है और उसे अपना समय बिताने के लिय इस तरह के निरर्थक कौतूहल के अलावा अन्य कोई मार्ग नजर नहीं आता।
इसी निरर्थक कौतूहल पर हमारे प्राचीन ऋषि मनुमहाराज का संदेश यहां वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या समेत प्रस्तुत है।

न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।

न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।

नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
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