जहां तक हमारा सवाल है तो मानते हैं कि समाज के बनने और बिगड़ने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे कोई चला और बदल नहीं सकता। अच्छी और बुरी मानसिकता वाले लोग इस धरती पर विचरते रहेंगे-संख्या भले लोगों की अधिक होगी अलबत्ता बेहूदेपन की चर्चा अधिक दिखाई और सुनाई देगी। समलैंगिकता या यौन साहित्य पर प्रतिबंध हो या नहीं इस पर अपनी कोई राय नहीं है। हम तो बीच बहस कूद पड़े हैं-अपने आपको बुद्धिजीवी साबित करने की यही प्रथा है। वैसे तो हम अपने मुद्दे लेकर ही चलते हैं पर इससे हमेशा हाशिये पर रहते हैं। देश में वही लोकप्रिय बुद्धिजीवी है जो विदेशी पद्धति वाले मुद्दों पर बहस करता है।
अब देश के अधिकतर बुद्धिजीवी बंदूक वाले आतंकवाद पर बहस करते हैं तो उनको खूब प्रचार मिलता है। हम नकल और मिलावट के आतंक की बात करते हैं तो कोई सुनता ही नहीं। इसलिये सोचा कि अंतर्जाल के यौन साहित्य और समलैंगिकता के मुद्दे पर लिखकर थोड़ा बहुत लोगों का ध्यान आकर्षित करें। वैसे इन दोनों मुद्दों पर हम पहले लिख चुके हैं पर यौन साहित्य वाली एक सविता नाम की किसी वेबसाईट पर प्रतिबंध पर हमारे एक पाठ को जबरदस्त हिट मिले तब हम हैरान हो गये।
ऐसे में सोचा कि चलो कुछ अधिक हिट निकालते हैं। दूसरा पाठ भी जबरदस्त हिट ले गया। समलैंगिता वाला पाठ भी हिट हुआ पर अधिक नहीं। हम दोनों विषयों को भुला देना चाहते थे पर टीवी और अखबारों में समलैंगिकता का मुद्दा बहस का विषय बना हुआ है। इस मुद्दे पर पूरे समाज के बिगड़ने की आशंका जताई जा रही है जो निरर्थक है। हमारा दावा है कि इस देश में एक या दो लाख से अधिक समलैंगिक प्रथा को मानने वाले नहीं होंगे। इधर अंतर्जाल पर भी इसी मुद्दे पर अधिक लिखा जा रहा है।
सवाल यह है कि सविता भाभी नाम की उस वेबसाईट पर प्रतिबंध को लेकर कोई जिक्र क्यों नहंी कर रहा जिसके बारे में कहा जाता है कि पूरे देश के बच्चों को बिगाड़े दे रही थी। एक अखबार में यह खबर देखी पर उसके बाद से उसकी चर्चा बंद ही है। टीवी वालों ने तो इस पर एकदम ध्यान ही नहीं दिया-यह एक तरह से जानबूझकर किया गया उपेक्षासन है क्योंकि वह नहीं चाहते होंगे कि लोग उस वेबसाईट का नाम भी जाने। उसका प्रचार कर टीवी वाले अपने दर्शक नहीं खोना चाहेंगे। हो सकता है कि यौन साहित्य वाली वेबसाईटों को यही टीवी वाले अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रहे हों। वैलंटाईन डे पर अभिव्यक्ति की आजादी पर बवाल मचाने वाले लोग पता नहीं कहां गायब हो गये हैं। गुलाबी चड्डी प्रेषण को आजादी का प्रतीक मानने वाले अब नदारत हैं। यह हैरान करने वाला विषय है।
समलैंगिकता पर बहस सुनते और पढ़ते हमारे कान और आंख थक गये हैं पर फिर भी यह दौर थम नहीं रहा।
हम बड़ी उत्सुकता से सविता भाभी वेबसाईट पर प्रतिबंध के बारे में बहस सुनना चाहते हैं-करना नहीं। बड़े बड़े धर्माचार्य और समाजविद् समलैंगिकता के मुद्दे पर उलझे हैं।
1.पूरा समाज भ्रष्ट हो जायेगा।
2.मनुष्य की पैदाइश बंद हो जायेगी।
3.यह अप्राकृतिक है।
बहस होते होते भ्रुण हत्या, बलात्कार और जिंदा जलाने जैसे ज्वलंत मुद्दों की तरफ मुड़ जाती है पर नहीं आती तो इंटरनेट पर यौन साहित्य लिखने पढ़ने की तरफ।
इसका कारण यह भी हो सकता है कि समलैंगिकता पर बहस करने के लिये दोनों पक्ष मिल जाते हैं। कोई न कोई धर्माचार्य या समलैंगिकों का नेता हमेशा बहस के लिये इन टीवी वालों को उपलब्ध मिलते हैं। सविता भाभी प्रकरण में शायद वजह यह है कि इसमें सक्रिय भारतीय रचनाकार (?) कहीं गायब हो गये हैं। एक संभावना हो सकती है कि वह सभी छद्म नाम से लिखने वाले हों ऐसे में जो पहले से डरे हुए हैं वह क्या सामने आयेंगे? उन लोगों ने कोई सविता भाभी सेव पोजेक्ट बना लिया है पर अंतर्जाल के बाहर उनका संघर्ष अधिक नहीं दिख रहा। उनका सारा संघर्ष कंप्यूटर पर ही केंद्रित है। एक वजह और भी हो सकती है कि इंटरनेट पर काम करने वालों का कुछ हद तक सामाजिक जीवन प्रभावित होता है इसलिये वह अपने बाह्य संपर्क जीवंत बना नहीं पाते और जिनके हैं उनकी निरंतरता प्रभावित होती है। शायद इसलिये सविता भाभी के कर्णधारों को बाहर कोई नेतृत्व नहीं मिल रहा जबकि समलैंगिकों के सामने कोई समस्या नहीं है।
समाज के बिगड़ने वाली वाली हमारे कभी समझ में नहीं आती। यौन साहित्य तो तब भी था जब हम पढ़ते थे और आज भी है। इस समय जो लोग अपनी उम्र की वजह से इसका विरोध कर रहे हैं यकीनन उन्होंने भी कहीं न कहीं ऐसा साहित्य पढ़ा होगा। हमने भी एकाध पढ़ा पर मजा नहीं आया पर पढ़ा तो!
समलैंगिकता से पूरा समाज बिगड़ जायेगा यह बात केवल हंसी ही पैदा कर सकती है वैसे ही जैसे यौन साहित्य से सभी बच्चे बिगड़ जायेंगे? इस देश का हर समझदार बच्चा जाता है कि समलैंगिकता एक अप्राकृतिक क्रिया है।
यौन साहित्य की बात करें तो क्या देश में कभी बच्चों ने ऐसा साहित्य पढ़ा नहीं है? क्या सभी बिगड़ गये हैं? एक आयु या समय होता है जब ऐसी बातें मनुष्य को आकर्षित करती हैं पर फिर वह इससे स्वतः दूर हो जाता है।
हम तो मिलावटी खाद्य सामग्री और नकली नोटों के आतंक की बात करते थक गये। इधर समलैंगिकता पर चल रही बहस उबाऊ होती जा रही है। इसलिये कहते हैं कि-‘यार, सविता भाभी वेबसाईट पर लगे प्रतिबंध पर भी कुछ बहस करो तो हम समझें कि बुद्धिजीवी संपूर्णता से समाज की फिक्र करते हैं।’
हम तो समर्थन या विरोध से परे होकर बहस सुनना चाहते हैं। बीच बहस में भी हम कोई तर्क नहीं दे रहे बल्कि बता रहे हैं कि यह भी एक मुद्दा जिस पर बहस होना चाहिए।
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