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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/21/2009

ऐसे पर नहीं दे सकता-लघुकथा

उसकी पुकार पर सर्वशक्तिमान प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो वह बोला
‘सर्वशक्तिमान आप तो सब जानते है। आप हमारी मनोकामना पूरी करो इसलिये आपको मानते हैं। मैं ऊंचा उठना चाहता हूं । जमीन पर कीड़ों की तरह बरसों से रैंगते हुए बोर हो गया हूं। मुझे दायें बायें ऊपर नीचे बंगला, गाड़ी, दौलत और शौहरत के पर लगा दो ताकि आकाश में उड़ सकूं। यह जीना भी क्या जीना है?’
सर्वशक्तिमान ने मुस्कराते हुए कहा-‘मैंने तो इस तरह के पर बनाये ही नहीं जिनका नाम बंगला,गाड़ी,दौलत और शौहरत हो। लगता है कि तुम इंसानों ने ही बनाये हैं इसलिये ऐसे पंख तो तुम इस धरती पर ही ढूंढो। जहां तक मेरी जानकारी है ऐसे पर नहीं बल्कि बोझ है जिनके पास होते हैं वह इंसान उनके बचाने की सोचकर और जिनके पास नहीं होते वह उसके ख्वाबों का बोझ ढोता हुआ जमीन पर वैसे ही रैंगता है जैसे कीड़े। जो जीव आकाश में उड़ते हैं वह कभी ऐसी कामना भी नहीं करते। उड़ने के लिये आजादी जरूरी है पर तुम तो बोझ मांग रहे हो और वह मैं तुम्हें नहीं दे सकता।’
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1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और प्रेरक लघु कथा है आभार्

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