विश्व भर में अनेक हिंसक आंदोलन हुए हैं कुछ प्रतिहिंसा की आग में जले या फिर नाकामी ने उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया। जिन हिंसक आंदोलनों ने तात्कालिक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त भी किये तो वह समाज के लिये कोई संदेश नहीं दे सके। यह अलग बात है कि लोग उनके तोतले संदेशों का जबरदस्ती प्रचार करते हैं। श्रीलंका में पृथक तमिल ईलम आंदोलन का प्रमुख प्रभाकरण श्रीलंका की सेना के हाथों आखिर मारा गया। वैसे आम भारतीय को उससे अधिक सरोकार नहीं है पर उसका प्रचार यहां हो रहा है इसलिये उस पर विचार करना जरूरी है।
उसके जीवन चरित्र से सीखने लायक किसी के पास कुछ नहीं है क्योंकि उसका रास्ता इस दुनियां को कहीं नहीं ले जाता सिवाय निरर्थक हिंसा के जो लोगों की मानसिकता और भूगोल को संकीर्ण दायरों में बांधती है। उसने भाषा के आधार पर अपना हिंसक आंदोलन चलाया। यह केवल एक दिखावा भर लगता था वैसे ही जैसे धर्म, जाति, और क्षेत्र के नाम पर चले आंदोलन होते हैं। बात यह है कि मनुष्य में समाज के रूप में रहना एक आदत है और वह धर्म जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र के नाम पर समूह बनाने का अभ्यस्त है। कुछ शक्तिशाली लोग मनुष्य की इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाने के लिये ऐसे समूहों के शीर्षकों लेकर अपने आंदोलन चलाते हैं ताकि एक समूह उनक साथ बना रहे। उनका लक्ष्य अपने स्वार्थ होते हैं पर जिस समूह के वह हितैषी होने का वह दावा करते हैं उसमें कुछ लोग उनक समर्थक हो जाते हैं। अगर ऐसे लोग हिंसक हुए और अपने समाज को सम्मान दिलाने के लिये हिंसा करते हैं तो भी उस समूह के लोग यह सोचकर चुप्पी साध लेेते हैं कि वह कम से कम अपने समाज की हानि तो नहीं कर रहे। दूसरे समाज की कर रहे हैं तो वही जाने-कहीं कहीं वह दूसरे समाज के प्रति उनके मन में घृणा भाव भी होता है।
भारत के दक्षिणी भाग के लोग बौद्धिक और सांस्कारिक दृष्टि से अत्यंत श्रेष्ठ हैं इस तथ्य का कोई विरोध नहीं कर सकता। कला,संगीत,फिल्म,नृत्य,विज्ञान,खेल तथा तकनीकी क्षेत्र में इन्हीं दक्षिणी भागों का योगदान बहुमूल्य है। तय बात है कि वहां के लोग पूरे देश की बौद्धिक शक्ति का प्रतीक हैं। इनमें भी तमिल भाषियों की संख्या अधिक है और उसी के अनुरूप उनका योगदान भी है।
प्रभाकरण श्रीलंका का था पर वहां रह रहे तमिल भाषियों के सम्मान की लड़ाई में उसे भारत के तमिल भाषियों का भावनात्मक समर्थन चाहिये था। उसे शुरुआती दौर में सफलता भी मिली पर भारत के स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की हत्या के बाद वह पूरी तरह से खत्म हो गया। यह उसके लिये आत्मघाती साबित हुआ। इसके बावजूद उसने परवाह नहीं की क्योंकि तब तक वह अपनी ताकत पश्चिमी देशों में मौजूद संपर्क सूत्रों के सहारे बढ़ा चुका था। श्रीलंका के तमिल भाषियों का सम्मान तो उसके लिये नारा भर था। उसने अपने ही देश के अनेक तमिल नेताओं की हत्या कर यह साबित भी किया। उसने विश्व में जिसे आत्मधाती हमलावर बनने का जो तरीका निकाला वह पूरे विश्व के लिये खतरनाक साबित हुआ। अमेरिका पर के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला होने के बाद वह पश्चिम के लिये चिंता का विषय बन गया। कोई प्रमाण तो नहीं मिला पर कुछ विशेषज्ञ उसमें प्रभाकरण के लिट्टे संगठन का सहयोग या मार्गदर्शन ढूंढते रहे।
कुछ अल्प बुद्धिमान उसमें शोषितों का मसीहा भी ढूंढ रहे हैं। उनका क्या कहने? गरीब, बेरोजगार, पीड़ित और शोषित महिला पुरुषों को वह आत्मघाती बनाता था। इन अल्प बुद्धिजीवियों से पूछा जाना चाहिये कि क्या प्रभाकरण ने इन गरीब,बेरोजगार, पीड़ितों और शोषितों के लिये स्वर्ग में क्या सम्मान और भोजन का बंदोबस्त कर रखा था। आम भारतीय लोग प्रचार माध्यमों की वजह से उसका नाम जानते थे पर वह कभी चर्चा का विषय नहीं बन पाया-उसकी मौत भी चर्चा का महत्वपूर्ण विषय नहीं बनीं। जब भारत में जाति, धर्म,भाषा और भाषाओं के विषय पर कभी बहस चली तो उसका नाम आया। उसके आंदोलन में धर्म का पुट देखने का प्रयास भी किया गया।
कुल मिलाकर उसके नाम से भ्रम फैलाने का पूरा प्रयास किया गया। अभी उसकी मौत पर भी ऐसा भ्रामक प्रचार हो रहा है कि उसके मरने से पूरे विश्व का उसका भाषाई समाज दुःखी है। ऐसा कहने वालों का शायद तमिल भाषियों से अधिक नहीं है इसलिये अनुमान से सभी कह रहे हैं। सच बात तो यह है कि भारत के प्रति जघन्य अपराध के बाद तमिल भाषियों में उसके लिये कोई सहानुभूति नहीं रही थी।
भारतीय तमिलों की श्रीलंका के तमिलों से सहानुभूति होना स्वाभाविक है पर वह इतनी नहीं है कि वह अपने देश को उसकी वजह से किसी संकट मे फंसता देखना चाहें।
इस लेखक के एक तमिल मित्र ने बताया था कि श्रीलंका में तमिल बहुत बड़े भूभाग में रहते हैं। उसका शायद चैथाई हिस्सा ही शायद रहा होगा जिस पर प्रभाकरण प्रभाव रखता था। झगड़ा केवल वहीं चल रहा था जहां प्रभाकरण रह रहा था। यह जरूरी नहीं कि श्रीलंका में रहने वाला तमिल प्रभाकरण से सहमत हो तब यह कैसे कहा जा सकता है कि विश्व में सारे तमिल भाषी उससे हमदर्दी रखते थे। विश्व में अनेक स्थानों पर समाजों के बीच संघर्ष नयी बात नहीं हैं और श्रीलंका में सिंहली- तमिल विवाद भी ऐसा ही है।
प्रभाकरण दिखाने के तौर पर तमिल भाषियों के लिये आंदोलन कर रहा था पर हथियारों, मादक द्रव्यों तथा अन्य अपराधिक गतिविधियों में उसका हाथ होने का संदेह प्रचार माध्यमों में व्यक्त किया जाता रहा है जहां से उसको धन प्राप्त होता था। उसने न तो कभी सैन्य प्रशिक्षण लिया न किसी युद्ध में भाग लिया। हां अपने समाज के गरीब और मजबूर लोगों को लालच के सहारे वह उनको आत्मघाती हमलावर बनने के लिये प्रेरित करता था। वह सैन्य वेशभूषा में रहता था पर इसका मतलब यह नहीं था कि वह कोई योद्धा था। एक तरह से वह हिंसा का सौदागर था जो अपने को सैनिक वेशभूषा में प्रस्तुत कर लोगों की सहानुभूति जताने का प्रयास करा रहा था।
मुख्य बात यह है कि विश्व भर के तमिलों की उसके साथ सहानुभूति होने का प्रचार एक मूर्खतपूर्ण प्रयास है। इस बारे में गैर तमिल भाषी अपने विचार न व्यक्त करें तो ही अच्छा। ऐसे में तमिल बुद्धिजीवियों के विचार ही सबसे अधिक प्रमाणिक माने जा सकते हैं वह भी उनके जो अपने समाज की गतिविधियेां के अधिक निकट हों।
सबसे अधिक तकलीफ यहां के बुद्धिजीवियों को देखकर होती है जो इसमें शामिल हो जाते हैं। आप यह बात कैसे किस पर थोप सकते हैं कि कोई युद्ध में मारे गये या चुनाव में हारे नेता के प्रति उसका पूरा समाज सहानुभूति रखता है। क्या आप अंतर्यामी है? क्या आप यह मानते हैं कि आम इंसान को कोई दूसरा काम नहीं है सिवाय उसके समाजों और समूहों के विख्यात या कुख्यात लोगों पर दृष्टि लगाये बैठने के?ं
सुनने में आया है कि श्रीलंका के सिंहली वहां के तमिलों के साथ प्रभाकरण की मौत के बाद विजेता की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह श्रीलंका के लिये भविष्य के लिये घातक है। यहां श्रीलंका के सभी नागरिकों को यह ध्यान रखना चाहिये कि अपने देश के एक भी आदमी को तकलीफ में रखकर वह खुश नहीं रह सकते। संभव है कि श्रीलंका में मौजूद कुछ तत्व अपने लोगों से अपनी नाकामियां छिपाने के लिये वहां सिंहली लोगों में अपने समाज के श्रेष्ठ और विजेता होने का प्रचार कर रहे हों। यह समाज श्रेष्ठता का बोध क्षणिक और भ्रामक है। हर व्यक्ति को अपनी रोजी रोटी और जीवन यापन के लिये अकेले संघर्ष करना है। सिंहली भी इससे बच नहीं पायेंगे उन्हें कम से कम श्रीलंका में रह रहे तमिलों से ऐसा व्यवहार करने से बचना चाहिये।
भारत के बुद्धिजीवियों से कभी कभी निराशा हाथ लगती है जब वह इस प्रकार की घटनाओं में जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बने समूहों में प्रतिद्वंद्वता का भाव स्थापित करने का प्रयास करने लगते हैं। यह आलेख प्रारंभ तो गांधी जी के अहिंसा सिद्धांत पर लिखने के लिये किया गया था जो आधुनिक समय में किसी भी प्रकार की सफलता का मूल मंत्र है पर प्रभाकरण को लेकर हो रहे प्रचार के कारण उस पर लिखना जरूरी लगा। आर्थिक, सामाजिक राजनीतिक आंदोलनों के लिये गांधीजी के अहिंसा सिद्धांत के अलावा कोई बढ़िया अस्त्र शस्त्र हो सकता है इस पर यकीन करना
कठिन है। हिंसा से किसी व्यक्ति को नष्ट किया जा सकता है और प्रतिहिंसा में स्वयं भी नष्ट होने का खतरा भी है पर अहिंसा के मंत्र में वह शक्ति है जो प्रतिकूल व्यक्ति या स्थिति को भी अपने अनुकूल बना ले और अपने लिये दैहिक खतरा भी नगण्य ही रहता है। इस पर इस रविवार को इसी ब्लाग पत्रिका पर लिखने का प्रयास किया जायेगा। हां, इतना जरूर है कि राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक शिखर पर बैठे लोगों के अच्छे और बुरे कामों से उसके जाति,भाषा,धर्म, और क्षेत्रों के आधार पर बने समूहों के आम व्यक्तियों पर जबरन नहीं थोपा जाना चाहिये। इस विषय पर भी इसी ब्लाग पत्रिका पर लिखने का प्रयास जारी रहेगा।
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3 टिप्पणियां:
मै आपके विचारों से शत प्रतिशत सहमत हूँ आभार दीपक जी
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