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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/15/2009

दक्षिण एशिया के साहित्यकार आतंक पर सच लिख भी कहां पाये-आलेख

अभी हाल ही में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यकार सम्मेलन संपन्न हुआ। इसमें भारत, पाकिस्तान,श्रीलंका,बंग्लादेश तथा अन्य सदस्य देशों के नामचीन साहित्यकार शामिल हुए। जैसा कि संभावना थी कि इस इलाके में व्याप्त आतंकवाद भी इसमें चर्चा का विषय बना। जब इलाके में आतंकवाद का बोलबाला है तो यह स्वाभाविक भी है। कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तो साहित्यकार इसी दर्पण की आंख की तरह देखने वाला होता है। इन साहित्यकारों ने आतंकवाद की निंदा की है और अपने देश के हिसाब से ही अपने विचार व्यक्त किये। पाकिस्तान के एक साहित्यकार ने बंग्लादेश में हाल ही में हुए विद्रोह में अपने देश का हाथ होने के आरोप का खंडन किया। बात यहीं पर ही अटक जाती है कि साहित्यकारों को क्या उसी नजरिये पर चलना चाहिये जिस पर उनका समाज या देश चल रहा है।

पहले तो यहां साहित्यकार और पत्रकार का भेद स्पष्ट करना जरूरी है। पत्रकार जो देखता है वही दिखाता और लिखता है पर साहित्यकार का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिये। पत्रकार कल्पना नहीं करता और न उसे करना चाहिये पर साहित्यकार को किसी घटना में तर्क के आधार पर कल्पना और अनुमान करने की शक्ति होना चाहिये। अपने समाज और देश के प्रति साहित्यकार की प्रतिबद्धता होना जरूरी है पर उसे अंधभक्ति से दूर रहना चाहिये। दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अपने देश में जो इनाम मिलते हैं वही उनकी प्रतिष्ठा का आधार बनते हैं पर सच तो यह है कि पूरे क्षे.त्र की हालत एक जैसी है और सभी जगह यह पुरस्कार लेखकों के संबंधों पर अधिक दिये जाते हैं और कई तो ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कार पा जाते हैं जिनको समाज में ही अहमियत नहीं दी जाती है। बहरहाल दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अब इस बात का भी मंथन करना चाहिये कि क्या वह वास्तव में ही समाज और देश के लिये महत्ती भूमिका निभा रहे है? दक्षिण एशिया की सभी भाषाओं में बहुत कुछ लिखा जा रहा है पर उससे सामाजिक सरोकार कितने जुड़े हैं यह भी देखने की बात है।
हम दक्षिण एशिया के साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद पर लिखी गयी सामग्रियों पर ही विचार करें तो लगेगा कि वह यथार्थ से परे हैं। लेखक को कल्पना तो करना चाहिये पर उससे यथार्थ का बोध होता हो न कि वह झूठ लगने लगे। हमने केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही पढ़ा है। सभी को पढ़ना संभव नहीं है पर पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर इस संबंध में पढ़ते है तो लगता है सभी साहित्यकार एक जैसे ही है। हो सकता है कि कुछ अपवाद हों पर उनकी रचनायें अनुवादों को माध्यम से अधिक नहीं पढ़ने को मिल पाती।
अब साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद की निंदा की गयी पर कितने ऐसे साहित्यकार हैं जो इस बात को समझते हैं कि आतंकवाद भले ही जाति,भाषा,क्षेत्र और धर्म के नाम झंडो तले अपना काम करता है पर वास्तव में वह एक व्यापार है। ऐसा व्यापार जिस पर भावना,श्रृंगार और अलंकार से शब्द सजाकर प्रस्तुत करना कभी कभी एकदम निरर्थक प्रक्रिया लगती है। आतंकवाद एक हाथी है जिसे साहित्यकार आंखें बंदकर पकड़ लेते हैं। कोई उसके सूंड़ को पकल लेता है तो कोई पूंछ-फिर उस पर अपनी व्याख्या करने लगता है। जिस तरह पहले किसी सुंदरी का मुखड़ा गढ़कर उसकी आंखें,नाक,कान,कमर,और बालों पर कवितायें और कहानी लिखी जाती थीं वैसे ही आतंकवाद का विषय उनके हाथ आ गया है। जिस तरह किसी सुंदरी के शारीरिक अंगों पर खूब लिख गया पर उसके व्यवहार,आचरण और ज्ञान पर कवि लिखने से बचते रहे वही हाल आतंकवाद का है। साहित्यकारों और लेखकों ने आतंकवादी घटनाओंे से हुई त्रासदी पर वीभत्स रस से सराबोर रचनायें खूब लिखीं। पाठक का दर्द खूब उबारा पर कभी इन घटनाओं के पीछे जो सौदागर हैं उसकी कल्पना किसी ने नहंी की। प्रसंगवश यहां हम मुंबई के खूंखार आतंकवादी कसाब की चर्चा करते हैं। 58 से अधिक बेकसूर लोगों का हत्यारा कसाब इंसान से कैसे राक्षस बना? क्या किसी पाकिस्तानी लेखक ने उसकी कल्पना करते हुए कोई लघुकथा या कविता लिखी। एक गरीब घर का लड़का जिसे उसका बाप आतंकवादी कैंप में यह कहकर भेजता है कि उसकी दो बहिनों की शादी के लिये पैसे मिलने के लिये यही एक रास्ता है। वह एक मामूली चोर डेढ़ से दो लाख रुपये की लालच में अपने देश के लिये योद्धा बनने को तैयार कैसे हो गया? उसमें इतनी क्रूरता कैसे आयी कि बंदूक हाथ में आते ही उसने 58 जाने बेहिचक ले ली? यही इंसान से राक्षस बना कसाब पकड़े जाने पर चूहे की तरह अपनी जान की भीख मांगने लगा। प्रचार माध्यम बता रहे हैं कि अब वह अपने किये पर पछता रहा है तब तो यह सवाल उठता ही है कि आखिर इस राक्षसीय कृत्य के लिये प्रेरित करने वाले कौनसे कारण थे?
कसाब के पीछे जो तत्व हैं उनके सच पर कितने पाकिस्तानी या भारतीय साहित्यकार लिख पाते हैं। कसाब और उसके साथी तो साँस लेते हुए ऐसे इंसान थे जो किन्ही राक्षसों के हथियार बने गये। मुख्य अपराधी कौन हैं? मुख्य अपराधी हैं वह जो इसके लिये धन मुहैया करवा रहे हैं। यह धन देने वाले तमाम तरह के अवैध धंधों में लिप्त हैं और प्रशासन और जनता का ध्यान उन पर न जाये इस तरह के आतंकवाद का प्रायोजन कर रहे हैं। यह सच कितने साहित्यकार लिख पाये? कसाब तो इंसानी रूप में एक बुत है या कहें कि रोबोट है।
पाकिस्तान साहित्यकारों में क्या इतनी हिम्मत है कि वह कसाब को केंद्रीय पात्र बनाकर कोई कहानी लिख सकें? नहीं! दरअसल दक्षिण एशियों के साहित्यकार नायकों पर लिखकर समाज की वाहवाही लूटना चाहते हैं पर खलनायकों के कृत्यों में पीछे समाज की जो स्वयं की कमियां हैं उसे उबारकर लोगों के गुस्से से बचना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि नायकों की विजय के पीछे अगर समाज है तो खलनायक की क्रूरता के पीछे भी इसी समाज के ही तत्व हैं। समाज की की खामियों को छिपाकर उससे अच्छा बताने से तात्कालिक रूप से प्रशंसा मिलती है शायद यही कारण है कि लोग उससे बचने लगे हैं। भारत में हालांकि अनेक लोग समाज की कमियों की व्याख्या करते हैं पर वह भी उसके मूल में नहीं जाते बल्कि सतही तौर पर देखकर अपनी राय कायम कर लेते हैं। नारी स्वातंत्रय पर लिखने वाले अनेक लेखक तो हास्यास्पद रचनायें लिखते हैं और उससे यह भी पता लगता है कि उनके गहन चिंतन की कमी है।

दक्षिण एशियाई देश भ्रष्टाचार,बेरोजगारी,गरीबी,अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों के कारण विश्व में पिछडे हुए हैं और इसलिये यहां लोगों में कहीं न कहीं गुस्से की भावना है। दक्षिण एशिया की छबि विश्व में कितनी खराब है यह इस बात से भी पता चलता है कि ईरान के सबसे बड़े दुश्मन इजरायल ने भी उसे अपने लिये कम पाकिस्तान को अधिक संकट माना है जो कि दक्षिण एशिया का ही हिस्सा है। जब हम दक्षिण एशिया की बात करते हैं तो फिर भौगोलिक सीमाओं से उठकर विचार करना चाहिये पर जैसे कि सम्मेलन की समाचार पढ़ने को मिले उससे तो नहीं लगता कि शामिल लोग ऐसा कर पाये। सच बात तो यह है कि समाज और देश को दिशा देने का काम साहित्यकार ही कर पाते हैं क्योंकि वह पुरानी सीमाओं से बाहर निकलकर रचनायें करते हैं। सभी साहित्यकार ऐसा नहीं कर पाते जो पर जो करते हैं वही कालजयी रचनायें दे पाते हैं। अगर हम दक्षिण एशिया की स्थिति को देखें तो अब ऐसी कालजयी कृतियां कहां लिखी जा रही हैं जिससे समाज या देश में परिवर्तन अपेक्षित हो।
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