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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/19/2008

आर्थिक मंदी और निजीकरण का खेल-आलेख

भारत तो फिर भी इस आर्थिक मंदी से उबर लेगा पर अमेरिका के लिये यह एक बहुत बड़ी चुनौती रहने वाली है। इसका कारण यह है कि अमेरिकी कंपनियों के मुखिया चाह कोई भी हों पर उनमें एक बहुत बड़ी राशि विदेशी निवेशकों की हैं। इनमें अनेक भारतीय तो हैं पर साथ में चीन, जापान और खाड़ी देशों के अनेक धनीमानी रईस है। उस दिन अंतर्जाल पर एक ब्लाग ने आंकड़ा दिया था कि अमेरिका की कंपनियों में 36 प्रतिशत तो खाड़ी देशों के लोगों का है। उस ब्लाग पर लेखक ने लिखा था कि ईरान सहित खाड़ी देशों के मुखिया इसलिये अमेरिका से नाराज नहीं हैं कि वह आतंकवाद के विरुद्ध उनकी विचाराधारा का हनन कर रहा है। उनकी नाराजगी कारण यह है कि वह उनकी पूंजी के सहारे ही टिका हुआ है पर वैसा सम्मान उनका नहीं करता। यह एक राजनीतिक विषय हो सकता है पर एक बात तो पता लगती है कि अंग्रेजों की तरह अमेरिका भी दूसरे देशों के धन के कारण विश्व के आर्थिक और सामरिक शिखर पर है.

अब यह तो पता नहीं कि उस लेखक की बात में कितनी सच्चाई है पर उससे एक आभास तो हुआ कि अमेरिका की आर्थिक ताकत का मुख्य आधार ही विदेशी धन है। अमेरिका की बड़ी कंपनियों को करारा झटका लगा है। वहां की एक डूबती हुई बीमा कंपनी को सरकारी सहायता से बचाया गया। दुनियां की एक महाशक्ति और संपन्नता का प्रतीक अमेरिका जिस मंदी से जूझ रहा है उसके कारण अभी खोजना सहज नहीं हैं। एक बात तय है कि पूरे विश्व की औद्योगिक ताकत कुछ लोगों के हाथ में हैं और वह अपने हिसाब से रणनीति बनाकर अपने हित साध सकते हैं यह अलग बात है कि उसका असर आम आदमी पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता न दिखे पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता ही है।

भारत में निजीकरण के अंधभक्तों से इस समय अनेक सवाल पूछ जा सकते हैं-
1. जब शेयर बाजार में उथल पुथल होती है तब सरकार से यह अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह गिरते हुए भावों पर नियंत्रण करने का प्रयास करे। एक तरफ निजीकरण की वकालत दूसरी तरफ सरकार से अपेक्षायें क्या दोहरा मापदंड नहीं है?
2. हर बार सरकारी कर्मचारियों पर दोषारोपण करने वाले यह बतायें कि वह निजी क्षेत्रों में दी जाने वाली सब्सिडी को विरोध क्यों नहीं करते? जब निजी क्षेत्रों को सब्सिडी दी जाती है तो उसका सही उपयोग होने का क्या प्रमाण है? सरकारी कर्मचारियों पर भ्रष्टाचार और लापरवाही का ढेर सारे आरोप लगते हैं पर निजी क्षेत्र को तमाम तरह की सुविधायें सस्ती या मुफ्त दर देने से राजस्व की जो हानि होती है क्या वह कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतन से अधिक नहीं होती। निजी उद्योग या सेवा पर संकट आने पर एकदम कर्मचारियों की नौकरी खत्म कर दी गयी तो समाज के लोग उनसे सहानुभूति जताने लगे। यह ठीक बात है पर उन उद्योगों और सेवाओं के उच्च पदस्थ लोगों ने सरकार से कितनी मदद ली और उसका क्या किया?क्या उनके कामकाज में कोई दोष नहीं है। मंदी की वजह से निजी क्षेत्रों में नौकरी का संकट होने पर सरकार को प्रयास करने पड़ते हैं और तब कई अत्यावश्यक सेवाओं के निजीकरण की मांग पर सवाल उठना स्वाभाविक हैं।
3. कुछ सेवायें और उद्यम सरकारी संरक्षण में होने चाहिये-अब यह बात तय लगती है। अनेक आरोपों के बावजूद यह एक सत्य बात है कि निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों से महंगे और भविष्य सुरक्षित होने के कारण सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरी पर आंच आने के भय से ठीक काम करते हैं।
अब बात अमेरिका की करें। अमेरिकी अगर अपना सामरिक साम्राज्य सी.आई.ए के सहारे चलाता है तो आर्थिक साम्राज्य इन्हीं कंपनियों के भरोसे ही पूरे विश्व में फैला है। अंग्रेज भी ईस्ट इंडिया कंपनी के सहारे हमारे भारत देश में आये और फिर राज्य करने के लिये फैल गये पर अमेरिकी की कई कंपनियों ने अप्रत्यक्ष रूप से पूरे विश्व में अपना जाल फैला रखा है भले ही प्रत्यक्ष रूप से उनका राज्य नहीं दिखता पर वहां के धनपति दूसरे देशों में अपना प्रभाव तो बनाये ही रहते हैं। अब जिस तरह उसकी कंपनियां दबाव में है उससे तो लगता है कि विश्व में राजनीतिक पटल पर भी उसे चुनौती मिलने वाली है। भारतीय कंपनियों कोई दबाव बना पायेंगी इसकी संभावना नहीं के बराबर है पर अमेरिका को राजनीति पटल पर चुनौती देने वाले चीन की कंपनियां एसा प्रयास कर सकती हैं जिससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो जाये।

हालांकि इस समय पूरे विश्व के शेयर बाजार संकट में है पर इससे वही देश अधिक संकट में होंगे जिनके शीर्षस्थ लोग वहां विनिवेश करते हैं। यहां यह बात याद रखनी चाहिये कि अनेक गरीब देशों में भी अब ऐसे शीर्षस्थ लोग हैं हो दिखाने के लिये भले ही अमेरिका के बैरी या आलोचक हों पर अपने देश के लोगों को खून की तरह चूसकर अपना पैसा अमेरिका में ही लगाते हैंं। अगर वह आर्थिक रूप से टूटे तो फिर अपने देशों की आम जनता से पैसा वसूल करेंगे। इसमें कई देश ऐसे हैं जहां तानाशाही है और वहां जो शीर्षस्थ लोगों की मनमानी होगी वह भला कौन रोक पायेगा?
अब देखना यह है कि अमेरिका अपने यहां आयी इस मंदी को थाम पाता है कि नहीं क्योंकि विश्व में फैले उसके आर्थिक और सामरिक साम्राज्य का ऐसी कंपनियां आधार है जिन्हें बचाने का वह प्रयास कर रहा है।
यहां निजीकरण पर थोड़ी चर्चा करना बुरा नहीं हैं। वैसे सरकार को व्यवसायिक कामकाज से दूर रहना चाहिये-ऐसा माना जाता है। पर जिस तरह निजीकरण के बाद आवश्यक उद्यमों और सेवाओं का जो परिणाम सामने आ रहा है उससे तो लगता है कि मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाने वाले पूर्वज भी गलत नहीं थे। इसी के चलते इस देश ने प्रगति की पर निजीकरण के रास्ते पर चले हमारे देश की कितनी प्रगति है-यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों पर कुप्रबंध का शिकार होने के आरोप लगते हैं पर निजी क्षेत्र सुप्रबंध वाले हैं यह भी नहीं लगता। इस बात पर विचार करना चाहिए कि आखिर हमारे देश के अनुकूल कौनसी व्यवस्था है। अनेक आथिक विशेषज्ञ अमेरिकी बैंकों जैसी हालत भारत की बैंकों की होने को खारिज करते हैं क्योंकि उनके पीछे सीधे सरकार खड़ी है। यह आत्मविश्वास आखिर उसी व्यवस्था की देन है जिसकी आलोचना की जाती है। एक बात निश्चित है कि कुप्रबंध की समस्या अगर सरकारी क्षेत्रों के साथ है तो निजी क्षेत्र की भी है। जिसका परिणाम अंतत: आम आदमी को ही भोगना पड़ता है। भारतील अर्थव्यवस्था का एस दुर्गुण है कुप्रबंध और यही विचार करते हुए अर्थव्यवस्था के स्वरूप में बदलाव लाने चाहिए न कि अमेरिका का अंधानुकरण करना चाहिए। क्या निजीकरण से वाकई आम आदमी को लाभ हुआ है? इस पर कभी विचार करते हुए लिखने का प्रयास इसी ब्लाग पर किया जायेगा।

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