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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/31/2008

अपने आपसे दूर हो जाता आदमी-साहित्य कविता

जीवन के उतार चढाव के साथ
चलता हुआ आदमी
कभी बेबस तो कभी दबंग हो जाता
सब कुछ जानने का भ्रम
उसमें जब जा जाता तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

दुख पहाड़ लगते
सुख लगता सिंहासन
खुली आँखों से देखता जीवन
मन की उथल-पुथल के साथ
उठता-बैठता
पर जीवन का सच समझ नहीं पाता
जब अपने से हटा लेता अपनी नजर तब
अपने आप से दूर हो जाता आदमी

मेलों में तलाशता अमन
सर्वशक्तिमान के द्वार पर
ढूँढता दिल के लिए अमन
दौलत के ढेर पर
सवारी करता शौहरत के शेर पर
अपने इर्द-गिर्द ढूँढता वफादार
अपने विश्वास का महल खडा करता
उन लोगों के सहारे
जिनका कोई नहीं होता आधार तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

जमीन से ऊपर अपने को देखता
अपनी असलियत से मुहँ फेरता
लाचार के लिए जिसके मन में दर्द नहीं
किसी को धोखा देने में कोई हर्ज नहीं
अपने काम के लिए किसी भी
राह पर चलने को तैयार होता है तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

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