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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/30/2007

रास्ता

अपने घर से बाजार
बाजार से अपने घर
रास्ता चलता हूँ दिन भर
कभी सोचता हूँ इधर जाऊं
कभी सोचता हूँ उधर जाऊं
सोच नहीं पाटा जाऊं किधर
रास्ते पर जाते हुए चौपाये
और आकाश में उड़ते पंछी
कितनी बिफिक्री से तय करते हैं
अपनी-अपनी मंजिल
मैं अपनी फिक्र छिपाऊँ तो कहाँ और किधर
रास्ते में पढ़ने वाले मंदिर में
जब जाकर सर्वशक्तिमान की
मूर्ति पर शीश नवाता हूँ
तब कुछ देर चैन पाता हूँ
लगता है कोई साथ है मेरे
क्यों जाऊं किधर

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