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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/05/2007

यही सोचकर खामोश हो जाता हूँ

सोचता हूँ कुछ कहूं
पर फिर खामोश हो जाता हूँ
सोचता हूँ
मैं अपनी जुबान से कुछ कहूं
वह समझें कुछ और
मैं कुछ लिखूं
वह कुछ पढ़ें और
मैं करूं इशारा
वह मचा देंगे शोर
यही सोच कर खामोश हो जाता हूँ

अपनी अक्ल और सोच को तो
सब जानते हैं
पर दावा कितना भी करें
दूसरों को जानने का
पर हकीकत हम जानते हैं
कि किसी को नहीं पहचानते हैं
अगर परमज्ञानी होते सब
तो फिर किससे और क्यों होते धोखे तब
यही सोच कर खामोश हो जाता हूँ

अपने दिल की बात किससे कहूं
अपने ख़्याल मैं खुद नहीं रख सकता
तो कोई और क्यों कर रखेगा
जिसका बोझ मैं नहीं उठा सका
उसे और कोई क्यों उठा सकेगा
जिस सोच को अँधेरे में रखना है
उसे किसी और के सामने रोशन करें
तो अँधेरा क्यों साथी बनेगा
यही सोच खामोश हो जाता हूँ

अपने जज्बातों और ख्यालों को
संभाल कर रखने के अलावा भी
भला कोई रास्ता हो सकता है
अनचाहे लोगों में बांटने से क्या होगा
यहाँ सबको तलाश है
दूसरों के छिद्रों की
अपनी चादर उन्हें दिखाने से क्या होगा
खामोशी से अच्छा भला कोई दोस्त हो सकता है
यही सोच खामोश हो जाता

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