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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/18/2007

व्यर्थ बोलने से मौन बेहतर

वह चीखते-चिल्लाते हैं

मैं मौन हो जाता हूँ

वह सवाल करते हैं कि

बोलने के लिए मैं अपना मुहँ खोलूं

पर मौन में जितनी शक्ति है व्यर्थ

बोलने में नहीं पाता हूँ



जब वह बोलते हैं

तब मैं सोचता हूँ
शब्द और व्याकरण के

अपने भण्डार पर

दृष्टिपात करता हूँ

मैं जानता हूँ कि जब में बोलूँगा

तब वह मौन हो जायेंगे

पर मेरे से जीत जायेंगे

यह सोच फिर मौन हो जाता हू
मैं अपने शब्द व्यर्थ में नहीं

नष्ट करता

जानता हूँ लोग केवल अपनी
कहने के लिए ही अड़े है

किसी की समझने और सुनने की

क्रिया से सब परे हैं

ऐसे में मेरा मौन ही

मेरा साथी बनता है

मेरे से बहुत कुछ कहता और सुनता है

मेरी कविताओं को

वही सजाता है

हास्य और श्रृंगार के अलंकरणों से

वही मेरी अभिव्यक्ति है

यह देखकर मौन हो जाता हूँ

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