ऐसे में नये लेखकों के लिए जगह तभी बच पाती है कि जब वह नये संदर्भों को बेहतर ढंग से उपयोग करे। शायद यही कारण है कि कुछ लेखक विदेशी लेखको और रचनाकारों को देश में स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि लोग उनसे अपने पुराने ग्रंधों की चर्चा न करें। जॉर्ज बर्नाड शा, शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स, लेनिन और चर्चिल के बयां यहां सुनाये जाते हैं जबकि हमारे देश के धर्म ग्रंथों में जीवन की जो सच्चाईयां वर्णित हैं वह ज्यादा प्रमाणिक हैं कम से कम इस देश की भौगोलिक, मौसम और सामाजिक परिवेश को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है । मैंने टालस्ताय, चेखोव , जार्ज बर्नाड शा और शेक्सपियर को पढा है और उनकी रचनाएं अच्छी भी हैं पर मैं उन्हें अपने देश के संदर्भ नहीं देख पाता हूँ क्योंकि कितना भी कह लें हमारा भारतीय समाज की हालत और मूल स्वभाव बाहर के देशों से अलग है।
भारत को विश्व का आध्यात्मिक गुरू केवल कहने के लिए नहीं कहा जाता है बल्कि यह एक प्रामाणिक सच्चाई है। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथ और उसके बाद के रचनाकार भी जीवन और प्रकृति के सत्य के निकट लिखते रहे न कि उनमे कोई कल्पना गडी। हिंदी भाषा के स्वर्णिम काल-जिसे भक्ति काल भी कहा जाता-में जो रचनाएं हुईं वह उन्हीं प्राचीनतम रहस्यों को नवीन रुप देतीं है जिन्हें संस्कृत भाषा की क्लिष्टता के कारण लोग भूलते जा रहे थे। इस काल -खण्ड के रचनाकारों ने हमारे प्राचीनतम ज्ञान को नवीन संदर्भों में प्रस्तुत कर देश को एक नयी दिशा दीं, जिस पर देश अभी तक तक चल रहा है - आज तक वह रचनाये लोगों के दिलो-दिमाग में इस तरह छायी हुईं हैं जैसे कि कल ही लिखीं या रची गयी हौं।
सीधा आशय यह है लेखक वही है जो सामाजिक सरोकारों से जुड़कर लिखे। ऐसा करने पर ही लेखक कहला सकता है। लिखने को तो आजकल हर कोई कुछ-न-कुछ लिखता है पर सभी लेखक तो नहीं हो जाते। आजकल देश में शिक्षित लोगों की संख्या प्राचीन समय के मुकाबले ज्यादा है और कागज पर सभी को कहीं न कहीं लिखना ही पड़ता है। लोग अपने रिश्तेदारों को पत्र लिखते हैं , छात्र अपने अध्ययन के लिए नोट्स बनाते हैं और निजी तथा शासकीय कामकाज में अनेक लोगों को पत्र लिखने पड़ते हैं। कुछ लोग तो पत्र लिखने में इतना महारथ हासिल कर लेते हैं कि लोग उनसे ही पत्र लिखवाने के लिए आते हैं पर उन्हें लेखक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनके लेखन का सरोकार निजी आधार हैं न कि सामाजिक।
जो लेखक विचारधारा से प्रभावित होकर लिखते हैं उनकी रचनाएं दायरों में क़ैद होकर रह जाती हैं। वह केवल उन्हीं लोगों को प्रभावित कर सकती हैं जिन्हें उस विचारधारा से सरोकार है। पत्रकारिता के मेरे गुरू ने मुझे पत्रकारों की तीन प्रकार बताये थे और कहा था कि चूंकि तुम लेखक भी हो तो उन्हीं भी इन तीन प्रकारों
में विभक्त कर सकते हो। उन्होने जो तीन प्रकार बताये थे वह इस प्रकार हैं।
- खबर फरोश-जो किसी अख़बार में इसीलिये काम करने के लिए आते हैं जिन्हें केवल ख़बरों की दुनिया से जुडे रहना हैं, और उन्हें इससे कोई मतलब नहीं रहता कि अखबार के संगठन का क्या रुप है?
- ख़्याल फरोश- ऐसे लोग जो अपने ख़्याल की वजह से किसी अखबार में काम करते हैं जहाँ उन्हें उसके अनुसार करने का अवसर मिलता है।
- खाना फरोश- कुछ लोग इसीलिये अखबार में काम करते हैं ताकि उनका रोजगार चलता रहे। उनके अनुसार अब ऐसे ही लोगों की संख्या ज्यादा है।
लेखक में उन्होने खबर फरोश की जगह कलम या लफ्ज़ फरोश रखने को कहा बाकी दो वैसे के वैसे ही बताये। उन्होने बताया था कि पहले वह ख़बर फरोश थे और अब खाना फरोश हो गये हैं। उन्होने मुझे यह साफ बता दिया था कि अखबार में मुझे अधिक समय तक काम नहीं मिल पायेगा और लेखन भी मुझे अपने बूते करना होगा। उन्होने कहा था-"तुम्हारा लिखना बहुत अच्छा है पर बाजार में बिकने लायक नहीं"
उन्होने कहा था कि तुम तो कलम फरोश हो वही रहोगे-साथ ही उन्होने कहा था कि खबर फरोश और कलम फरोश लोगों के पास नये प्रयोग की गुंजाईश हमेशा ज्यादा होती है । वह बहुत अच्छे ढंग से खबर लिखते थे पर अपने को लेखक मानने से इनकार करते थे उनका यही कहना था कि मेरे लिखने का समाज से कोई सरोकार नहीं है जबकि लेखक की रचना का किसी न किसी तरह से समाज से सरोकार होना चाहिऐ। (क्रमश:)
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