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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/14/2007

अनजानी राहों पर चलते हुए

अपनों से बढती दूरी का दर्द
अब बहुत हो गया है

इसीलिये गैरों में अपनेंपन की

तलाश का प्रचलन हो गया है
फिर भी नहीं है मन को सुकून
जहाँ भी देखो खुदगर्जों का
हुजूम जुट गया है
आओ कुछ अपनी कहों
और हमारी सुनो
बहरों की इस भीड़ में
अपने मन से कहें और सुने
अनजानी राहों में भटकें
सब भटक रहे हैं
शायद कोई मिल जाये
जिसे वीरानों में घूमने का
मन हो गया है
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टूटा मन, बिखरे सपने और हारी अक्ल
वह निकला है अनजानी राहों पर
न कोई साथी है न हमराही
पत्ता नहीं मंज़िल का
फिर भी चलता जा रहा है
फिर भी उसने वह जान
जो अब तक अनजान था
उसने वह देखा जो
अभी तक अनदेखा था
उसने वह सुना
जो अभी तक अनसुना था
घर से निकल कर
दायरों से बाहर चलकर
राहों में मील के पत्थर
रखता गया
दूसरों के लिए बनाता गया
नयी नयी मंजिलों के पते
वह था एक भटका राही

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