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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/05/2007

खाली समय परनिंदा में नहीं सत्संग बिताएँ

प्रात: हम जब नींद से उठते हैं तो हमारा ध्यान कल गुजरी बातों पर जाता है या पूरे दिन की योजना बनाने का विचार दिमाग में आता है। इस तरह जो हमने नींद से उर्जा अर्जित की होती है वह मिनट में समाप्त हो जाती है। इतना ही नहीं जा द्द्र्ता हमारे मस्तिषक में विश्राम की वजह से आयी होती है वह भी समाप्त हो जाती है।
हम अपनी उसी दुनिया में घूमने का आदी होते हैं जो हमने देखी होती है। अपनी तरफ से न तो कुश नया सोचते हैं न ही किसी नये सुख के कल्पना करते हैं। न ही कभी नये दोस्त बनाने का विचार आता है न ही कोइ नयी कल्पना करने का इरादा बनाते हैं। धीरे हमारे अंदर एक बौध्दिक ठहराव आने लगता है और हम बोरियत महसूस करने लगते हैं। हमारे मस्तिष्क में जड़ता का भाव आने लगता है। हम यह भूल जाते हैं कि हमारी देह की पूरी शक्ति मस्तिष्क में होती है और जैसे वह कमजोर होने लगता है हम न केवल स्वभाव से वर्ण देह से भी रुग्ण होते जाते हैं। हम ऎसी सिथ्ती में आते जाते हैं जहां अपना जीवन बोझिल लगाने लगता है- तब हम ऎसी हरकतें करने लगते हैं जो तकलीफ कम करने की बजाय बदती है। हमें जब कम खाना चाहिऐ तब ज्यादा खाने लगते हैं और जब जितना खाना चाहिऐ उससे कम खाते हैं। जो नहीं खाना चाहिऐ उसे खाते हैं और जो खाना चाहिऐ वह हमें पसंद नहीं आता। जो हजम नही होता वह खाने का मन करता है और जिससे पेट पचा नही सकता उसे जानते हुए भी केवल स्वाद के लिए खाते हैं।

मतलब हमारा अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण कम होते होते समाप्त हो जाता हिया। मानव को अन्या जीवों से सर्वश्रेष्ठ केवल उसकी बुध्दी की वजह से माना जाता है और जब हम उस पर से नियंत्रण खो बैठे तो हम स्वयं को मानव केवल देह से कह सकते हैं बाकी तो हमारे सारे कर्म पशु-पक्षियों की तरह सवाल अपने पेट भरने तक सीमित रह जाते हैं। इतना हे नही हमारे अन्दर मौजूद अंहकार यह जताता है कि हम दुनिया के सबसे बध्दिमान व्यक्ति हैं और हम उल्टी सीधी हरकतें करते रहते हैं। इसका पता हमें तब तक नहीं चलता जब तक हम किसी ज्ञानी आदमी से नहीं मिला करते। अपने आसपास जो लोग हैं वह भी अपनी तरह होते हैं तो जब उन्हें अपने को देखना नहीं आता वह दूसरों के व्यक्तित्व का अवलोकन क्या करेगा । यहां तो हर कोई अपनी बात चीख और चिल्ला कर कह रहा है कोई किसी की सुन कहॉ रहा है जो दुसरे की सुनाकर अपनी बात कह सके। सबके अपने दर्द हैं कोई भला दुसरे का हमदर्द कैसे बन सकता है। हमें अपने बारे में ज्ञानियों के बीच ही बैठकर ही जन सकते हैं कि हम कितने पानी में हैं। ज्ञानी एक एक व्यक्ति पकड़ कर नहीं बताते कि तुझमें यह गुण है या यह अवगुण है। वह एक फ्रेम बताते हैं कि इस प्रकार आदमी में गुण होना चाहिऐ और कैसा अवगुण है जिससे उसे दूर रहना चाहिऐ । अब पूछेंगे कि ऐसे ज्ञानी कहॉ मिलेंगे तो इसमें सोचने वाली बात नहीं है। जब हमें कोइ समन खरीदना होता है तो उसका ज्ञान हमें हाल हो जाता है पर देखिए इतनी जरा सी बात हमें पूछनी पड़ती है कि ज्ञानी कहाँ मिलेगा। ज्ञानियों के मिलने का स्थान है सत्संग। हमारे देश की बरसों पराने है सत्संग । हमारे पूर्वजों ने पहले ही यह जान लिया था कि सत्संग के बिना आदमी का काम चल जाये यह संभव नहीं है। इसीलिये उन्होने ऎसी जगहों का निर्माण कराया जहाँ आदमी दुनियां जहाँ की बातें छोडकर कवल भगवन में मन लगाने के लिए मिल सके । यह परम्परा आज भी चल रही है। अब थोडा रुप बदल गया है। अब दुनिया ने तरक्की की है और टीवी पर घर बैठे-बैठे ही सत्संग नसीब होता है फिर भी लोग सत्संगों में बहार जाती हैं क्योंकि घर पर सत्संग तो मिलता है और ज्ञानी भी मिलता है पर सत्संगी कोइ नही मिलता। अगर कोइ ज्ञानी जरूरी है तो साथ में सत्संगी भी जरूरी है । सत्संग का मतलब कवल सुनना ही नहीं है वरन गुनना भी है और वह तभी सम्भव है जब हमें कोइ सत्संग मिले
लोग कहते हैं कि सत्संग तो कवल बुदापे में ही करना चाहिऐ । में उसका उलटा ही देखता हूँ जिन्होंने युवास्था में सत्संग नहीं किया बुदापे में उनका मन सत्संग की तरफ जाता ही नहीं है। सत्संग में तो वह या तो इसीलिये जाते हैं कि घर पर बहुएँ बैठी हैं भला क्या बैठकर अपने घर पर अपनी भद्द पित्वाऊँ । या वह दुनियां वालों को यह दिखाने जाते हैं कि हम अब हम धार्मिक हो गए हैं अब हमारी दुनियादार्र में दिलचस्पी नही है। । सत्संग में भी जाकर उन्हें चेन नही पड़ता वहां भी वह निंदा और पर्निन्द्दा करने वालों को ढूंढते हैं या वहां सोते हैं। मतलब यह है कि युवावस्था में ही अपना ध्यान भगवन भक्ती में लगाना चाहिऐ ।

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