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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/18/2015

मुर्दे बोलते नहीं पर सवाल कर सकते हैं-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन(murde bolte nahin par sawal kar sakte hain-hindi thought article)

                              उस लड़की ने दो मनचलों के खिलाफ छेड़छाड़ के विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी।  दोनों को जेल भी जाना पड़ा। जमानत पर छूटे तो अततः भीड़ के बीच उस लड़की की हत्या कर दी।  अब प्रचार माध्यम सरकार और पुलिस से सवाल पूछ रहे हैं। तय बात है कि यह प्रचार माध्यम उस भीड़ में अपनी छवि जनता के प्रति सहानुभूति दिखाना चाहते हैं जिसने यह तमाशा देखा-एक फिल्म के दृश्य की तरह।  फिल्म और टीवी सीरियलों में कभी भीड़ कों किसी लड़की के बचाते हुए नहीं देखा जाता वरन् वह केवल दृश्य देखती है।  फिल्मी या टीवी के दृश्य में संकट में पड़ी लड़की को बचाने के लिये कोई नायक आता है-कभी नहीं भी आता है। भीड़ कभी नायक की तरह उसे बचाती नहीं दिखाई देती इसलिये वास्तविक भीड़ कभी ऐसी कोशिश नहंी करती।  हमारे यहां फिल्में मार्गदर्शक बन गयी हैं। उसके काम करने वाले नायक अपने अभिनय से भगवान बन जाते हैं।  जनमानस में वह इस तरह बसे हैं कि वह जिस साबुन का स्वयं जीवन उपयोग नहंी करते पर उसके विज्ञापन में काम कर भारी मात्रा में बिकवा देते हैं।
                              भीड़ कभी नायक नहंी बनती दिखी इसलिये वह किसी लड़की पर मनचलों के हमले या किसी आदमी पर लुटेरों के हमले भी उसी तरह देखती है जैसे कि फिल्म या टीवी धारावाहिक देखती है। उसे प्रेरणा देने वाले टीवी और फिल्म निर्माता भी उसे इसी रूप में चेतनाहीन देखना चाहते हैं। जो देखे सोचे बिल्कुल नहीं। सोचे तो कुछ करने का विचार भी न करे। वह सवाल कर सकती है पर उसके जवाब देना जरूरी नहीं है।
                              यह भीड़ मनोरंजन व्यवसायियों के लिये काम की है। मनचलों की लड़की हत्या का दृश्य देख रही भीड़ टीवी समाचारों में दिखाई जाती है तो फिल्मी दृश्य जीवंत होता दिखता है न! समाचार प्रसारण करने वाले भी तो यही चाहते हैं। अब इस भीड़ में शमिल एक कह रहा है या कह रही है‘-वह लोग भयानक लग रहे थे। इसलिये हम डर गये थे।
                              वह मनचले इंसान थे। नशा आदि से चेहरा भयानक बना लिया हो अलग बात है। कोई वीर योद्धा नहीं थे। भीड़ से दो चार लोग पत्थर या ईंट उठाकर फैंक देते तो देखते क्या होता? योग साधक जानते हैं कि अपराधियों की प्राण शक्ति अधिक नहीं होती।  वह तो चेतनाहीन मनुष्य समुदाय पर उसी तरह शासन करते हैं जैसे कि अंधों में काना राज करता है।  मुश्किल यह है कि मुर्दे बोलते नहीं पर सवाल करते हैं।  सरकार से और पुलिस से सवाल सभी कर रहे हैं पर उस भीड़ से कोई सवाल नहीं कर रहा।  शायद मान लिया गया है कि सामान्य मनुष्य को अपने जैसे सामान्य मनुष्य की रक्षा का न कर्तव्य है न अधिकार!
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 
ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh


वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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