आज पूरे भारत में हिन्दुओं के प्रिय इष्ट श्री हनुमान जी की जयंती मनाई जा रही है। महर्षि बाल्मीकि जी द्वारा लिखा ‘रामायण’ हो या श्री तुलसीदास जी द्वारा लिखी गयी ‘रामचरित मानस’, किसी भी रामकथा में श्री हनुमान जी को भगवान श्रीराम के तुल्य ही नायक की तरह मान्यता प्राप्त है। भगवान श्रीराम के चरित्र की व्याख्या करने वाले ग्रंथ उनके नाम पर होने के बावजूद उनको अपने समय के एकल नायक के रूप में स्थापित नहीं करते क्योंकि उनकी सेवा का व्रत लेने वाले हनुमान जी अपने स्वामी के समकक्ष ही खड़े दिखते हैं।
बुद्धि और शक्ति के समन्वय का प्रतीक श्रीहनुमान जी मर्यादा के विषय में भी अपने स्वामी भगवान श्रीराम के समान थे। लंका दहन के बाद उन्होंने जब श्रीसीता जी को पुनः दर्शन किये तो उनसे अपनी पीठ पर चढ़कर श्रीराम के यहां चलने का आग्रह किया। देवी सीता ने अस्वीकार कर दिया। श्रीहनुमान जी जानते थे कि वह एक प्रतिव्रता स्त्री हैं और उनके आग्रह को स्वीकार नहंी करेंगी। दरअसल वह भी श्रीसीता जी की तरह यही चाहते थे कि भगवान श्रीराम अपने पराक्रम से रावण को परास्त कर श्रीराम को साथ ले जावें। उन्होंने यह आग्रह औपचारिकता वश कर अपनी मर्यादा का ही परिचय दिया था। हालांकि वह मन ही मन चाहते थे कि श्रीसीता उनका यह आग्रह अस्वीकार कर दें।
भगवान श्रीराम से मैत्री कर अपने ही भाई का वध कर राज्य प्राप्त करने वाले श्रीमान् सुग्रीव जब अपने सुख सुविधाओं के भोग में इतने भूल गये कि उन्हें भगवान श्रीराम के कर्तव्य का स्मरण ही नहीं रहा, तब श्रीहनुमान अनेक बार उनको संकेतों में अपनी बात कहते रहे। इसके बावजूद भी उन्होंने सेवक होने की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। उनका ही यह प्रभाव था कि लक्ष्मण के श्रीराम के आदेश पर कुपित होने पर किष्किंधा आने से पहले ही श्रीसुग्रीव ने अपनी सेना को एकत्रित होने का आदेश दे दिया था। जब श्रीलक्ष्मण किष्किंधा पहुंचे तब श्रीहनुमान जी ने सुग्रीव की सफाई देते हुए उनको यही तर्क देकर शांत किया था। इससे पता लगता है कि श्रीहनुमान जी न केवल दूरदृष्टा थे बल्कि राजनीतिक विशारद भी थे।
भारतीय जनमानस में उनको नायकत्व की छबि प्राप्त होने का एक दूसरा कारण भी है कि उसमें वर्णित अधिकतर पात्र राजशाही पृष्ठभूमि के हैं पर श्रीहनुमान आम परिवार के थे। बाकी सभी लोगों ने कहीं न कहीं राजशाही का उपयेाग किया पर श्रीहनुमान जी सदैव सेवक बनकर डटे रहे। उनकी सेवा की इतनी बड़ी शक्ति थी कि उनके स्वामी पहले सुग्रीव और बाद में भगवान श्रीराम उनको समकक्ष दर्जा देते थे। भगवान हनुमान की यह सेवा कोई व्यक्तिपूजा का प्रतीक नहीं थी क्योंकि वह धर्म स्थापना के लिये तत्पर अपने स्वामियों की सहायता कर रहे थे। उनकी यह सेवा निष्काम थी क्योंकि उन्होंने कभी इसका लाभ उठाने का प्रयास नहीं किया। जब सुग्रीव को बालि ने घर से निकाला तब श्रीहनुमान जी भी उनके साथ हो लिये। दरअसल वह सुग्रीव का नहीं बल्कि न्याय का पक्ष ले रहे थे। उसी तरह भगवान श्रीराम के लिये उन्होंने रावण सेना का संहार कर रावण द्वारा श्रीसीता के हरण का बदला ले रहे थे। उनका यह श्रम नारी अनाचार के प्रतिकार के रूप में किया गया था। कहने का अभिप्राय यह है कि श्रीहनुमान ‘सत्य, न्याय और चरित्र’ की स्थापना के लिये अवतरित हुए। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि उन्होंने धर्म स्थापना के लिये अपना पूरा जीवन लगा दिया। यही कारण है कि उनको राम कथा में लक्ष्मण से भी अधिक सम्मानीय माना गया। श्रीलक्ष्मण तो भाई होने के कारण श्रीराम के साथ थे पर हनुमान जी तो कोई पारिवारिक संबंध न होते हुए भी इस धरती पर धर्म स्थापना के लिये उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे। धर्म स्थापना के लिये सामुदायिक अभियान आवश्यक हैं यही उनके चरित्र से संदेश मिलता है।
हनुमान जयंती पर उनका स्मरण करते हुए यह चर्चा करना अच्छा लगता है। खासतौर से जब शारीरिक श्रम की महत्ता कम होती जा रही है और सेवा भाव को निम्न कोटि का माना जाने लगा है तब लोगों को यह बताना आवश्यक है कि इस संसार का संचालन उपभोग प्रवृत्ति के लोगोें की वजह से नहीं बल्कि निष्काम भाव से परिश्रम और सेवा करने वालों के कारण ही सहजता से हो रहा है। इस अवसर पर श्रीहनुमान को नमन करते हुए अपने ब्लाग लेखक मित्रों, पाठकों तथा देशवासियों को बधाई।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियरhttp://rajlekh.blogspot.com
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jai shri raam.
jai hanumaan...
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