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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/20/2009

इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा-व्यंग्य आलेख (insan aur bandar-hindi hasya vyangya)

आदमी कभी बंदर रहा होगा-इस सिद्धांत पर यकीन नहीं होता। दरअसल बरसों पहले यह पश्चिमी सिद्धांत पढ़ा था कि आदमी पहले बंदर था या इसे यूं कहें कि बंदर धीरे धीरे आदमी बन गया। दरअसल हमने चालीस बरसों से किसी बंदर को आदमी बनते हुए नहीं देखा। कहा जाता है कि आदमी की बुद्धि इस सृष्टि में सबसे तीव्र है इसलिये ही वह पशु और पक्षियों तथा अन्य जीवों पर नियंत्रण कर लेता है और जिसमें बंदर भी शामिल है।
कई बार हमने बंदर को देखा है। उसे कभी हमलावर नहीं पाया। हमारे देश में कई ऐसे पवित्र स्थान हैं जहां बंदरों के झुंड के झुंड रहते हैं। वहां उनका आचरण आदमी से मेल नहीं खाता नजर नहीं आता। बंदर शरारती होते हैं पर खूंखार नहीं। आदमी अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर कब खूंखार हो जाये कहना कठिन है।
इस सिद्धांत को न मानने के अनेक तर्क हैं। सबसे पहला तो यह है कि इंसान अगर बंदर था तो वह वर्तमान स्थिति में कभी नहीं आता। इधर हमने अध्यात्मिक ग्रंथ भी छान मारे पर कहीं इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि आदमी पहले कभी बंदर था। वैसे यह खोज पश्चिम की है इसलिये इस पर आपत्ति करना आसान नहीं है पर उनके इस सिद्धांत में अविश्वास के कारण है। एक तो यह है कि सृष्टि के प्रारंभ में ही सभी प्रकार के जीव प्रकट हो गये थे। सभी का चाल चलन, रहन सहन, आयु और स्वभाव के मूल तत्व कभी नहीं बदले। इसी स्वभाव के वशीभूत हर जीवन अपने कर्म करता है।


एक बार हम दूसरे कोटा (राजस्थान)शहर गये। वहां मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर पर प्रसाद चढ़ाया और हाथ में उसका लिफाफा लिये परिक्रमा लगाने गये। परिक्रमा के बीच में मंदिर के पीछे एक बंदर आया और हमारे हाथ से वह लिफाफा ऐसे लेकर चलता बना जैसे कि उसको देने ही आये थे। बाद में हमने देखा कि वह आराम से अपने परिवार के साथ वह खा रहा है।
हम यह कहें कि उसने छीना तो यह एक अपराध की तरह है। उस समय वह इतने आराम से ले गया कि हाथ से जाने के बाद हमें पता लगा कि वह तो लिफाफा ले गया।
हम मंदिर के बाहर निकले तो वहां अनेक भिखारी प्रसाद मांग रहे थे। हमारे हाथ से लिफाफा जा चुका था इसलिये हम तो चुपचाप चले आये। घर आकर मेजबान से कहा तो उन्होंने कहा-‘हां, ऐसा होता है। कई लोगों के साथ ऐसा हुआ है पर हम भी कई बार वहां गये पर ऐसी घटना नहीं हुई।
कुछ दिन पहले एक मंदिर के बाहर एक औरत चिल्ला रही थी। कोई उसका पर्स उसके हाथ से छीनकर भाग गया था। वह चिल्लाती रही पर जब तक किसी का ध्यान इस ओर जाता तब तक छीनने वाला लोगों की नजरों से ओझल हो गया।
तब हमें उस बंदर की याद आयी। हम सोच रहे थे कि ‘क्या उसके द्वारा हमारे हाथ से प्रसाद का लेना क्या छीनना कहा जा सकता है?’
उत्तर भी हमने दिया ‘नहीं’।
इंसान दो ही काम कर सकता है-भीख मांगना या छीनना। भीख मांगने और छीनने वाला भी इंसान है पर इसी इंसान की फितरत है कि अगर कोई इंसान बंदर की तरह आराम से चीज ले जाये तो हल्ला मचा देगा। भीख देगा पर यह नहीं चाहेगा कि कोई उसकी चीज को अपनी समझकर ले जाये। छीन जाये अलग बात है। आशय यह है कि लेनदेन में सहजता का भाव तो नहीं रह सकता जैसे कि बंदर द्वारा हमारे हाथ से प्रसाद लेने पर हुआ था। हमने जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। सोचा भूखा होगा? फिर आये भी तो वानरराज हनुमान जी के मंदिर में थे। अगर वहां कोई इंसान होता तो उससे प्रतिवाद कर वह लिफाफा वापस लेते पर बंदर से हमें स्वयं ही डर लग रहा था कि कहीं हमला कर भाग गया तो कहां उसे पकड़ पायेंगे?
तब ही हमेें इस बात पर यकीन हो गया था कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा। बंदर के पीछे हम नहीं भाग सकते पर वह हमारे पीछे भाग सकता है। वह हमसे डरता है पर हमेशा नहीं! हां, हम उससे हमेशा डरते हैं।
बंदर की पतली टांगें और हाथ तथा देह की लंबाई चैड़ाई देखकर नहीं लगता कि उसकी कोई पीढ़ी आगे इंसान भी बन सकती है। बंदर में अपने भोजन का संचय करने की प्रवृत्ति नहीं होती। इंसान में तो वह इतनी विकट है कि उसका कहीं अंत नहीं है। सोने के लिये बिस्तरा और खाने के लिये रोटी चाहिये पर इंसान को उससे भी चैन कहां? उसे तो बैंक खाते में भी एक बड़ा आंकड़ा चाहिये जिससे देखकर उसका मन हमेशा अपने साहूकार होने के भ्रम में जीता रहे।
जब भी हम कहीं बंदर देखते हैं तब सोचते हैं कि क्या कभी इंसान भी ऐसा रहा होगा? तमाम तरह के विचार मंथन किये पर इस सिद्धांत को मन नहीं मानता। बंदर शरारती होता है पर अपराधी नहीं।
हम एक बार एक उठावनी कार्यक्रम में गये थे। वहां पर एक स्कूटर के पास खड़े थे जिस पर बंदर चढ़ा और हमारा चश्मा लेकर पास ही खड़े मकान की गैलरी पर बनी लोहे की सींखचों से चिपक कर बैठ गया। एक लड़का उसे पत्थर मारकर वह चश्मा वापस लेने का प्रयास करने लगा। वहां खड़े एक आदमी ने कहा कि ’कोई खाने वाली चीज फैंको तो उसे लेने के चक्कर में वह चश्मा नीचे फैंक देगा।’

तब एक बिस्कुट लेकर उसकी तरफ उछाला गया। उसे पकड़ने के चक्कर में वह चश्मा उसके हाथ से छूट गया और हमने नीचे उसे लपक लिया। वह बिस्कुट भी नीचे आ गिरा पर हमने उसे स्कूटर पर रख दिया और वहां से हट गये और वह उसे लेकर चला गया। उसने उस चश्मे को नष्ट करने का प्रयास नहीं किया बस उसे पकड़े रहा। तब उसकी इस शरारत पर हमें हंसी आयी। तब भी यही ख्याल आया कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा।
एक आदमी ने हमें एक बात बताई थी पता नहीं वह सच है कि झूठ। उसने बताया था कि भुटटे लगाने वाले खेतिहर यह दुआ करते हैं कि कोई बंदर उनके खेत पर आये। होता यह है कि बंदर एक भुट्टा उठाकर अपनी कांख में दबाता है फिर दूसरा तोड़ता है। बंदर इस तरह बहुत से भुट्टे तोड़कर खेत स्वामी की मेहनत बचाता है। आखिर तक उसकी कांख में एक ही भुट्टा बना रहता है। कुछ न कहो कहीं से बंदिरया की आवाज आये तो वह भी छोड़ कर चलता बने। इंसान ऐसा कभी नहीं रहा होगा।
बंदरों की मस्ती देखते ही बनती है। इंसान प्रकृत्ति की मस्ती को समझता नहीं है बल्कि उसे उजाड़ कर कागजी मुद्रा में परिवर्तित कर वह बहुत प्रसन्न होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा। यह सच है कि इस सृष्टि में परिवर्तित होते रहते हैं। कई प्रकार के जीव बनते और बिगड़ते हैं, पर उनके स्वरूप में बदलाव नहीं आता। यह स्वरूप उनका मूल स्वभाव निर्धारित करता है। हो सकता है कि इंसानों जैसे बंदर रहे हों पर उनसे यह इंसान बना होगा यह संभव नहीं है। वह मिट गये होंगे पर इंसान नहीं बने होंगे। इंसान तो शुरु से ऐसा था और ऐसा ही रहा होगा। जीवों के मूल स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता भले ही वह मिट जाते हों।
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