इस लेखक को एक विद्वान मित्र ने एक किस्सा सुनाया था-वह अंतर्जाल पर सक्रिय है और जरूरत पड़ी तो उसका नाम भी बता देंगे और उससे इस विषय पर लिखने का आग्रह भी करेंगे। किस्सा आचार्य रजनीश का था जिनको बाद में ओशो के नाम से जाना जाने लगा है। वह एक बार इंग्लैंड की यात्रा पर जा रहे थे और वहां उनके आगमन का विरोध इसी आधार पर हो रहा था वह वहां की संस्कृति को पथभ्रष्ट कर देंगे। आचार्य रजनीश वायुयान में थे तो उनके शिष्य ने उनको बताया कि उन पर उनके ब्रिटेन प्रवेश पर रोक लग सकती है।
तब आचार्य ने जवाब दिया था कि ‘जिस देश की संस्कृति इतनी कमजोर है कि वह एक आदमी के वहां पांव रखने से ढह जायेगी वह चलेगी कितने दिन?’
यह पता नहीं कि वह प्रतिबंध लगा कि नहीं या वह वहां उतरे कि नहीं पर उनका उपरोक्त कथन इस लेखक के मन में घर कर गया। वैसे यह तो सही है कि पश्चिमी राष्ट्रों में उनका जमकर विरोध हो रहा था। उस पश्चिम में जो कि अपने खुलेपन के कारण जाना जाता है वह अधिक खुलेपन की उनकी विचारधारा से घबड़ाया रहता था। अक्सर भारतीय संस्कृति और संस्कारों के दब्बू मानने वाले आधुनिक विचारक इसे नोट करें कि पश्चिम से भी अधिक खुली विचाराधारा वाले भी इसी देश में पैदा होते हैं। आचार्य रजनीश को अपने जीवनकाल में ही इस देश में काफी विरोध का सामना करना पड़ा। अब भी उनकी अध्यात्मिक गुरु के रूप में मान्यता नहीं है पर सच बात तो यह है कि वह भारतीय अध्यात्म का पूरा ज्ञान रखते थे। उनका अध्ययन व्यापक था। वह भारतीय योग के उस घ्यान विज्ञान के प्रचारक थे जिसे यहां के लोगों की सबसे बड़ी शक्ति माना जाता है। इस ज्ञान का मुख्य स्त्रोत श्रीगीता ही है जो कि आदमी को दृष्टा भाव से जीवन का आनंद उठाने का संदेश देती है।
हम कुछ देर इसी दृष्टा भाव से देखें तो यह बात समझ में आयेगी कि आधा समाज मनोरंजन के लिये उस हर कार्यक्रमों, किताबों और वेबसाईटों की तरफ भाग रहा है जिसमें उसे मजा आये। यह उसका अधिकार है। हालांकि वह उसका परिणाम नहीं जानता। जिस तरह हम जो खाते हैं उसका प्रभाव उस चीज के स्वभाव के अनुसार हमारे शरीर पर होता है वैसे ही देखी और सुनी हुई बातों का प्रभाव भी हम पर होता है। हमारी इंद्रियां जिन विषयों के संपर्क में आती हैं वैसे ही वह उनका स्वभाव भी हो जाता है। अगर हम विष पीयेंगे तो पूरा शरीर नष्ट हो जायेगा उसी तरह कुछ विषय भी विष की तरह होते हैं। हम एक वस्त्र पहने ठीक ठाक ढंग से दिख रहे एक व्यक्ति को देख लें तो अच्छा लगता है वहीं अगर राह पर चल रहे किसी विक्षिप्त व्यक्ति को गंदे कपड़े या निर्वस्त्र देख लें तो मन खराब हो जाता है। यह प्रत्यक्ष प्रभाव दिखता है पर कुछ प्रभाव देर बाद होते हैं जो हमारा मानसिक संतुलन खराब करते हैं। यह बात उस आधे समाज को समझाना चाहिये जो इन प्रतिबंध समर्थकों की भीड़ में शामिल है।
दरअसल सच का सामना ने कई तरह से इस देश के बौद्धिक समाज की पोल खोलकर रखदी है। देश के धार्मिक, आर्थिक तथा साामजिक शिखरों पर बैठे वर्तमान कथित महापुरुषों की चाटुकारिता करने का आदी बौद्धिक वर्ग अपने को असहज स्थिति में अनुभव कर रहा है। यह चाटुकारिता वह दो तरह से करता है एक तो वह उनकी प्रशंसा में गुणगान करता है या फिर उनके सुझाये विषयों पर लिखकर पाठकों के समक्ष रखता है। समाज के संरक्षक और बुद्धिजीवियों को हमेशा यह भ्रम रहा है कि समाज उनकी बताई राह पर चलता है। अगर कोई ऐसा विषय जो उनके लिये असहज या समझ से परे है तो वह उसका विरोध इसलिये करते हैं कि समाज उनकी शक्ति की सीमा से बाहर जा रहा है। सीधी बात कहें तो समाज के शिखर पुरुषों और उनके मातहत बुद्धिजीवियों को अपने खास होने का अहंकार है और उनको पता ही नहीं कि आम आदमी उनको पढ़ता, सुनता और देखता जरूर है पर वह उनको महापुरुषों और विद्वानों की श्रेणी में नहीं रखता।
सच का सामना कार्यक्रम कोई खास प्रभावी नजर नहीं आ रहा। ऐसा लगता है कि झूठमूठ की प्रायोजित चर्चा है। फिर भी इस कार्यक्रम को दो चार साल तक दर्शक मिल जायेंगे। कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज और धुन पर होने के बावजूद यह वैसी लोकप्रियता शायद ही अर्जित कर पाये। अलबत्ता विवादों ने भी इसकी दर्शक संख्या में बढ़ोतरी की होगी ऐसा लगता है। इस प्रचार के दो तरीके हैं-एक तो प्रशंसात्मक दूसरा है नकारात्मक। लगता है अंतर्जाल और टीवी चैनलों पर इसे अजमाया जा रहा है।
इससे अलग बात यह है कि अंतर्जाल पर अगर देखा जाये तो अश्लीलता से अधिक बदतमीजी वाली वेबसाईटें देखने को मिल रही हैं। अनेक ब्लाग वेबसाईट तो देखते ही मन खराब हो जाता है। गाली गलौच से भरे वह ब्लाग लेखक जानते ही नहीं यौन साहित्य सभ्यता से भी लिखा जाता है। यौन भावना का संबंध मन से होता है। अभद्र शब्द पढ़ने का मजा खराब करते हैं। फिर यौन क्रियाओं को जितना व्यंजना विधा में लिखा जाये उतना ही उनके पाठक मजा ले सकते हैं।
इसके साथ ही हम यह भी अपने पाठकों को बता दें कि वह इतना पागल न बने। यौन का विषय कोई हमारी देह से अलग नहीं है। खाना बहुत अच्छा लगता है पर हम में से कितने लोग खाना बनाने वाले सीरियल देखते हैं? इसलिये बेहतर है कि वह सात्विक विषयों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें। सच का सामना जैसा कार्यक्रम देखकर अपनी बुद्धि विषाक्त न करें। इससे अच्छा तो कामेडी धारावाहिक देखें जिनको एक दो चैनल चला रहे हैं। हल्की फुल्की कामेडी वाले यह सीरियल दिल और दिमाग को ताजगी देते हैं।
इधर हम अंतर्जाल पर जो हालत देख रहे हैं उससे देखकर एक प्रश्न बार बार आता है कि आखिर कहां कहां किस पर प्रतिबंध लगाये जायेंगे। इसमें देश के साथ ही अप्रवासी और विदेशी लोग वेबसाईटें और ब्लाग बनाये बैठे हैं। समाज को बचाने के लिये सभी बुद्धिजीवियों को एक अभियान छेड़ना चाहिये। देश के धनपति लोगों को उन बुद्धिजीवियों की सहायता करना चाहिये। सच बात तो यह है कि अंतर्जाल के सात्विक उपयोग से सभी को दीर्घकालीन फायदा है और यह तामसिक विषयों से अधिक समय तक नहीं हो सकता। इस तरह के प्रतिबंध एक पैबंद की तरह लगते जायेंगे पर कोई नतीजा नहीं निकलेगा। दरअसल हम जिस युवा वर्ग की आस्था और संस्कार डांवाडोल होने की बात कर रहे हैं वह मध्यम वर्ग का और शिक्षित है। उसे समझाया जाये तो समझाया जायेगा। जहां तक पूरे समाज का सवाल है तो निम्न मध्यम और निम्न वर्ग अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार अपने वैचारिक खजाने के साथ ही आस्था और संस्कारों की रक्षा कर लेता है। इस कार्यक्रम पर प्रतिबंध लगे या नहीं यह हमारी चर्चा का विषय नहीं है क्योंकि अपने देश की अध्यात्मिक शक्ति कोई कम नहीं है-यह इस लेखक का यकीन है। इन प्रतिबंधों को पैबंद इसलिये कहना पड़ा क्योंकि निजीकरण और उदारीकरण का जो मतलब हमने निकाला है उससे जो व्यवस्था बनी है वह व्यापार को अंध स्वतंत्रता देने की पोषक है। अब यही व्यवस्था एक समस्या बनती नजर आ रही है। सवाल यह है कि यह प्रतिबंध इसी व्यवस्था को बचाने के लिये पैंबंद की तरह नहीं लगेंगे? जो लोग इन विवादों को दृष्टा की तरह देख रहे हैं उनके लिये तो प्रतिबंध लगें तो भी ठीक न लगे भी तो उनको इसकी परवाह नहीं होगी। अलबत्ता बुद्धिजीवियों और लेखकों का अंतद्वंद्व भी सच का सामना ही करा रहा है जो कि कम मनोरंजक नहीं है। वैसे सुनने में आ रहा है कि सच का सामना वालों को प्रतियोगी नहीं मिल पा रहे जो कि इसी समाज की दृढ़ता का प्रतीक हैं।
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