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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/30/2007

दिल और दिमाग

कुछ यूंही ख्याल कभी आता है
भला सबके बीच में भी
आदमी खुद को
अकेलेपन के साथ क्यों पाता है
शायद दिल नहीं समझता दिल की बात
अपनों और गैरों में फर्क कर जाता है
अपनों के बीच गैरों की फिक्र
और गैरों के बीच
अपनों की याद में खो जाता है
कभी बाद में तो कभी पहले दौड़ता है
पर वक्त की नजाकत नहीं समझ पाता है
दूसरों पर नजरिया तो दिमाग खूब बनाता
पर अपना ख्याल नहीं कर पाता है
बाहर ही देखता है
आदमी इसलिए अन्दर से खोखला हो जाता है

1 टिप्पणी:

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

कविता , गहरी अनुभूति छोड़ती हुई !मानवीय मूल्यों की सुंदर प्रस्तुति !

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