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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/27/2007

अपने ही घर में ही नस्लभेद

जनसँख्या में लड़कों के
अनुपात में
लड़कियों की
संख्या कम रह गयी है
लडकी की भ्रूण में ही
ह्त्या की कहानी
घर-घर में बह रही है
पुरुष की जन्म देने वाली
नस्ल अब लुप्त होने की
तरफ बढ़ रही है
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पुत्र के जन्म-दिन पर
जश्न में डूब जाता है
पूरा परिवार
पुत्री के जन्म दिन पर
सबका चेहरा ऐसा हो जाता है
जैसे हों डूबती नाव के सवार
पर भ्रूण में कौन क़त्ल कराता है
कौन है जो उसके जीवन पर
सदैव कहर बरपाता है
प्रश्न उठता है बारंबार
माँ बचाना भी चाहे तो
बचा नहीं पाती
रिश्ते की कोई औरत ही
उसे भ्रूण ह्त्या के लिए
मजबूर करवाती
औरत ही बनती है भ्रूण की शत्रु
नाम तो आदमी का भी आता
पहले तो सहती थी औरत
जीवन भर पीडा
अब तू भ्रूण में भी होता है वार
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पिता भी वही है
माता भी वही
पर बेटी पाती है
अपनी ही घर में
सम्मान ऐसा जैसे कि
पराया माल हो
पुत्र प्यार में ऐसे फूलता है
माँ-पिता की आंखों में
हीरे की तरह झूलता है
जैसे 'आयातित कमाल' हो
अपने ही शरीर से पैदा
जीव में नस्ल भेद करता समाज
भला क्यों न बेहाल हो
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