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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/06/2017

देह की उष्मा भी मन को जलाती है-दीपकबापूवाणी (Deh ki ushma bhi man ko jalati hai-DeepakBapuWani)

वह दिलासा क्यों देंगे जिनके दिल टूटे हैं, क्यों बांटेंगे जो उन्होंने सिक्के लूटे हैं।
‘दीपकबापू’ कान बंद किये आंखें बुझाये बैठे, ईमान के नाम लेकर बेईमान छूटे हैं।।
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अपने काम का फल सभी स्वयं चखते हैं, परायी वफा का हिसाब नहीं रखते हैं।
‘दीपकबापू’ डाल देते अपनी चाहत बट्टे खाते, अल्लहड़ बेहिसाब खुशी रखते हैं।।
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मुंह में राम तो मन में माया बसी है, खाने के खेल में इंसान की काया फंसी है।
‘दीपकबापू’ अक्ल से बात करें तो कैसे, वहमों चिंताओं ने उसकी नकेल कसी है।।
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एकरस में ऊबा मन भ्रमण करना चाहे, हास्य में मर्यादा का अतिक्रमण करना चाहे।
‘दीपकबापू’ एक शहर से दूसरे में चले जाते, चाहत सदा दिमाग में संक्रमण भरना चाहे।।
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देह की उष्मा भी मन को जलाती है, कुपित शीत भी पूरे तन को गलाती है।
‘दीपकबापू’ वर्षा की बूंदों से होते पुलकित, बाढ़ बनकर वह भी दर्द लाती हैं।।
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ज़माने के द्वंद्वों में मनोरंजन के झूले हैं, पराये पर हंसे अपने दर्द भूले हैं।
‘दीपकबापू’ ढूंढते कातिलों में फरिश्ते, भूखा प्यासा इंसान देखकर फूले हैं।।
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अपना आसरा पराये कंधों पर रखते हैं, टूटा स्वयं से यकीन बाहर तकते हैं।
‘दीपकबापू‘ आत्मचिंत्तन से घबड़ाकर भागते, कामयाबी के सपने ही पकते हैं।।
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