मं द्विज किं करिध्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः
जिस प्रकार विषहीन सर्प किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता, उसी प्रकार जिस विद्वान ने धन कमाने के लिए वेदों का अध्ययन किया है वह कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकता क्योंकि वेदों का माया से कोई संबंध नहीं है। जो विद्वान प्रकृति के लोग असंस्कार लोगों के साथ भोजन करते हैं उन्हें भी समाज में समान नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आजकल अगर हम देखें तो अधिकतर वह लोग जो ज्ञान बांटते फिर रहे हैं उन्होंने भारतीय अध्यात्म के धर्मग्रंथों को अध्ययन किया इसलिये है कि वह अर्थोपार्जन कर सकें। यही वजह है कि वह एक तरफ माया और मोह को छोड़ने का संदेश देते हैं वही अपने लिये गुरूदक्षिणा के नाम भारी वसूली करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे साधु और संत इस देश में होते भी अज्ञानता, निरक्षरता और अनैतिकता का बोलाबाला है क्योंकि उनके काम में निष्काम भाव का अभाव है। अनेक संत और उनके करोड़ों शिष्य होते हुए भी इस देश में ज्ञान और आदर्श संस्कारों का अभाव इस बात को दर्शाता है कि धर्मग्रंथों का अर्थोपार्जन करने वाले धर्म की स्थापना नही कर सकते।
सच तो यह है कि व्यक्ति को गुरू से शिक्षा लेकर धर्मग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही करना चाहिए तभी उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है पर यहंा तो गुरू पूरा ग्रंथ सुनाते जाते और लोग श्रवण कर घर चले जाते। बाबऔं की झोली उनके पैसो से भर जाती। प्रवचन समाप्त कर वह हिसाब लगाने बैठते कि क्या आया और फिर अपनी मायावी दुनियां के विस्तार में लग जाते हैं। जिन लोगों को सच में ज्ञान और भक्ति की प्यास है वह अब अपने स्कूली शिक्षकों को ही मन में गुरू धारण करें और फिर वेदों और अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू करें क्योंकि जिन अध्यात्म गुरूओं के पास वह जाते हैं वह बात सत्य की करते हैं पर उनके मन में माया का मोह होता है और वह न तो उनको ज्ञान दे सकते हैं न ही भक्ति की तरफ प्रेरित कर सकते हैं। वह करेंगे भी तो उसका प्रभाव नहीं होगा क्योंकि जिस भाव से वह दूर है वह हममें कैसे हो सकता है।
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
3 टिप्पणियां:
Bahut hi ache vichar lage aapke. Kabhi pahele aapke blog par padne ka su absar nahi mila par aaj pada to laga jaise kismat ne haath main ek ache vicharo ki potri de di ho.
Namaskar!
Saurabh
वह करेंगे भी तो उसका प्रभाव नहीं होगा क्योंकि जिस भाव से वह दूर है वह हममें कैसे हो सकता है।
एक असीम शांती प्रदान करने वाली रचना, सच् को सार्थक करता लेख "
Regards
मैं ये सोच रहा था वामपंथ से प्रेरित इस लेख में कहीं भी एक शब्द तक उन मौलवियों के बारे में नहीं लिखा गया जो रोज कसब और अजमल बनाते हैं. ये हिन्दू धर्माचार्यों को देख कर ही सारे स्वयंभू सुधारकों के पेट में काहे मरोड़ उठती है? ?? ये एक शोध का विषय है. आचार्य चाणक्य ने कहा था जब तुम्हे अपनी परंपरा में खोट नजर आने लगे तो जान लेना चाहिए की तुम्हारा अन्तकाल निकट ही है. और रह गए स्कूली टीचर तो मियाँ आजकल अधिकतर स्कूल टीचर मिड डे मील में कमीशन खाने वाले सरकारी आदमी भर रह गए हैं.
open ur eyes if possible
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