अपनों से बढती दूरी का दर्द
अब बहुत हो गया है
इसीलिये गैरों में अपनेंपन की
तलाश का प्रचलन हो गया है
इसीलिये गैरों में अपनेंपन की
तलाश का प्रचलन हो गया है
फिर भी नहीं है मन को सुकून
जहाँ भी देखो खुदगर्जों का
हुजूम जुट गया है
आओ कुछ अपनी कहों
और हमारी सुनो
बहरों की इस भीड़ में
अपने मन से कहें और सुने
अनजानी राहों में भटकें
सब भटक रहे हैं
शायद कोई मिल जाये
जिसे वीरानों में घूमने का
मन हो गया है
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टूटा मन, बिखरे सपने और हारी अक्ल
वह निकला है अनजानी राहों पर
न कोई साथी है न हमराही
पत्ता नहीं मंज़िल का
फिर भी चलता जा रहा है
फिर भी उसने वह जान
फिर भी उसने वह जान
जो अब तक अनजान था
उसने वह देखा जो
अभी तक अनदेखा था
उसने वह सुना
जो अभी तक अनसुना था
घर से निकल कर
दायरों से बाहर चलकर
राहों में मील के पत्थर
रखता गया
दूसरों के लिए बनाता गया
नयी नयी मंजिलों के पते
वह था एक भटका राही
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