मनचलों में राजा होने का भ्रम है,
किसी के हाथ लट्ठ किसी के बम है।
काम में नकारा मुंह चलाते
‘दीपकबापू’ बाजूओं में नहीं दम है।
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सड़क पर खड़ा हो बौने की तरह,
देख चलते नरमुंड खिलौने की तरह।
कहें दीपकबापू ओ चंचल मन
मौन तप कर बन सोने की तरह।
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राम जपते माया गीत गाने लगे,
गरीब इष्ट में प्रीत जगाने लगे।
‘दीपकबापू’ राजसी विषय प्रपंची
स्वार्थ में कर्मरीत चलाने लगे।।
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परेशान लोग पूछते हमसे पता
पहुंचे हुए सिद्धों का।
कहें दीपकबापू हम भी लाचार
जहां देखें वहीं सजा घर गिद्दों का
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रक्षा के लिये जरूरी हाथ में होता डंडा,
अपने चेहरे का नूर ही होता झंडा।
कहें दीपकबापू पराये सहारे
जीने का कोई नहीं होता फंडा।।
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हाथ जोड़ सेवक रूप रखकर आते,
सम्मति लेकर राजसुख पाते।
कहें दीपकबापू लोकतंत्र में
हम बाद में ही पछताते।।
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बंद कमरे में ताजा सांस कैसे मिले,
बिछाया सामान पांव कैसे हिले।
कहें दीपकबापू धन बचाने का डर
दिल में चैन कैसे मिले।।
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मासुम दिल का कत्ल करते हैं,
जुबान से जख्म भरते हैं।
कहें दीपकबापू न ढूंढो हमदर्द
सभी अपने दर्द में आहें भरते हैं।।
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दिल के रिश्ते दूर खड़े हैं,
मतलबी सब पास पड़े हैं।
‘दीपकबापू’ हम उदास ही ठीक
चिंता छोड़ चिंत्तन में चित्त जड़े हैं।
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