. तख्त चाहा था अब खोने से डरे हैं, खजाने के प्रहरी अपनी चिंता से भरे हैं।
‘दीपकबापू’ सामान्य से विशिष्ट बन गये, दाग छिप जाते क्योंकि भीड़ से परे हैं।।
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जोगी जिंदगी में महल लगें कैदखाने, असिद्ध जाते अंदर सिद्धि का सौदा लगाने।
‘दीपकबापू’ मायाजाल में फंसाया उन्मुक्त भाव, चले बाज़ार त्यागी छवि चमकाने।।
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स्वर्ग की सोचकर जीवन नर्क बनाते, धर्म के बदले धन देने का तर्क बनाते।
‘दीपकबापू’ अपने सत्य से बौरा जाते, लोग अपने घर का बेड़ा गर्क बनाते।।
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अपने ठंडे दिमाग से दूसरों में जोश जगाते, जज़्बात लूट लें इसलिये होश भगाते।
‘दीपकबापू’ धोखे और गद्दारी के महारथी, कुकृत्यों पर मुहर सफेदपोश लगाते।।
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सड़क पर महंगाई का रोना सभी रोते, महल में बसते ही सस्ते आंकड़ों पर सोते।
‘दीपकबापू’ थलचरों पर ही करते भरोसा, नभचर बिचारे सदा गिरने का डर ढोते।।
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भोली बात से ज़माने को ठगते हैं, अपनी लालच से लड़ते हमेशा जगते हैं।
‘दीपकबापू’ पैसे पद प्रतिष्ठा के भूखे हैं, मगर परोपकारी छवि ओढ़े लगते हैं।।
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