एक तरफ आजादी से उड़ने की चाहत
दूसरी तरफ रीतिरिवाजों के काँटों में
फंसकर करते अपने को आहत
अपने क़दमों पर चलते हुए भी
अपनी अक्ल के मालिक होते हुए भी
तमाम तरह के बोझ उठाते हैं
समाज से जुड़ने बाबत
जमीन पर चलने वाले इंसान को
परिंदों की तरह पंख भी होते तो
कभी उड़ता नहीं
क्योंकि अपने मन में डाले बैठा है
सारे संसार को अपना बनाने की चाहत
हाथ में कुछ आने का नहीं
पर जूझ रहा है सब समेटने के लिए
नहीं माँगता कभी मन की तसल्ली या राहत
अगर चैन से चलना सीख लेता
अपने क़दमों को अपनी ही तय दिशा
पर चलने देता
तो ले पाता आजादी की सांस
पर जकड़ लिया झूठे रीतिरिवाज के
बन्धन अपने
और फिर भी पालता आजादी की चाहत
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आनंद उठाने का सबसे अच्छी तरीका यह है कि आप एकांत में जाकर ध्यान
लगायें-चिंत्तन (Anand Uthane ka tareeka-Chinttan)
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रोकड़ संकट बढ़ाओ ताकि मुद्रा का सम्मान भी बढ़ सके।
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हम वृंदावन में अनेक संत देखते हैं जो भल...
7 वर्ष पहले
1 टिप्पणी:
सच्चाई से रुबरू करती आपकी कविता....
मृग तृष्णा के पीछे भागता है हर इनसान...
बहुत कुछ पाने के बाद भी और पाने की चाह खत्म नहीं होती....
लालच ही ऐसा है कि सुरसा के मुँह की तरह बढता ही जाता है ....
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