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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/13/2007

उधार की बैसाखियाँ

आकाश में चमकते सितारे भी
नहीं दूर कर पाते दिल का अंधियारा
जब होता है वह किसी गम का मारा
चन्द्रमा भी शीतल नहीं कर पाता
जब अपनों में भी वह गैरों जैसे
अहसास की आग में जल जाता
सूर्य की गर्मी भी उसमें ताकत
नहीं पैदा कर पाती
जब आदमी अपने जज्बात से हार जाता
कोई नहीं देता यहाँ मांगने पर सहारा

इसलिए डटे रहो अपनी नीयत पर
चलते रहो अपनी ईमान की राह पर
इन रास्तों की शकल तो कदम कदम पर
बदलती रहेगी
कहीं होगी सपाट तो कहीं पथरीली होगी
अपने पाँव पर चलते जाओ
जीतता वही है जो उधार की बैसाखियाँ नहीं माँगता
जिसने ढूढे हैं सहारे
वह हमेशा ही इस जंग में हारा

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