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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/17/2007

कभी बेवजह दया करना सीखा होता

सीमेंट और कंक्रीट से बने बुतों को
हसरत भरी निगाहों से देखे बिना
अपनी राह चले जाना
लोहे-लंगर से बनी
रबड़ के चक्रों पर घूमती
पालकियों में बैठे लोगों की ओर
ललचाती नजरें न डालना
क्योंकि उनमें भी लाचारी और
बेचारगी बस्ती है
अपने बहते हुए पसीनें को देख
उससे निकलती सुगंध की अनुभूति कर
यह अमृत है जिसमें तू नहाया है
तेरे हाथ से बने बुतों और पालकियों में
गुजारते हैं वह जीवन
भले तुझ पर फूल नहीं बरसे हैं
पर वह भी सुख को तरसे हैं
पर मजदूर होकर तू चलता है अपने पांव
मालिकों के पांव जमीन को तरसे हैं
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धुप में जलते हुए पसीना बहाकर
सूखी रोटी पानी से खाकर पेट भरता
वह मजदूर कहलाता है
उसके पसीने से सींचे बागों
की महक लेता
महलो में सांसे लेता
वह मालिक कहलाता है
फिर भी बैचैनी और चिंताओं में
गुजारता है दिन अपने
और पसीने का मलिक झुग्गी में
रहकर भी चेन की बंसी बजाता है
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सुख कोई चीज नहीं है जो हाथ लग जाये
यह तो अनुभूति है जो जब हो जाय
ख्वाहिशें और उम्मीन्दें पालोगे
उतना ही टूटने का खतरा बढेगा
दौलत और शौहरत जोड़कर
सुख की अनुभूति होती तो
धरती पर कयी जगह स्वर्ग दिखता
पर सब कुछ पाने वाले भी
स्वर्ग पाने के जतन करते हैं
धुप में खडे किसी प्यासे को पानी पिलाने
मिटटी में खेल रहे किसी
बालक के सिर पर हाथ फेर कर
उसे खिलौना देने
और किसी लाचार और बीमार पर
बेवजह दया दिखाने की आदत आम होती
फिर कहीं जाकर स्वर्ग की तलाशने की
कभी जरूरत नही होती
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